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कार । हे! पारखी! अपना पक्ष (दुराग्रह) छोड़कर जरा सावधानी पूर्वक देखो, जिनवाणी और अन्यवाणी में उपर्युक्त उदाहरणों की भांति बहुत अन्तर हैं।
गुरु का स्वरूप
विषयाशावशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः । ज्ञानध्यानतपो रक्तस्तपस्वी सः प्रशस्यते ॥
( आचार्य समन्तभद्र, रत्नकरण्ड श्रावकाचार )
जो पांचों इन्द्रिय की विषयों की चाह की पराधीनता से रहित, आरम्भ रहित, परिग्रह रहित और ज्ञान, ध्यान, तथा तप में लवलीन होता है वह सच्चा गुरु कहलाता है।
श्री साधु स्तुति का महत्त्व
शीतरितु जौंरैं अंग सब ही सकोरैं तहाँ, तन को न मोरैं नदीधौरैं धीर जे खरे । जेठ की झकोरैं जहाँ अण्डा चील छोरैं, पशु-पंछी छाँह लौरें गिरिको तूप वे धरें। घोर घन घोरै घटा चहूँ ओर डोरैं ज्यौं- ज्यौं, चलत हिलोरें त्यौं - त्यौं फोरैंबल ये अरे । देह नेह तोरै परमारथ सौं प्रीतिजो हैं, ऐसे गुरु ओरैं हम हाथ अंजुली करें ॥ १३ ॥
-जैनशतक भूधरवास
जब सब लोग अपने शरीर को संकुचित किए रहते हैं ऐसे कड़ाके की सर्दी में, अपने शरीर को बिना कहीं से भी मोड़े, नदी किनारे खड़े रहते हैं, जब चील अण्डा छोड़ दे और पशु पक्षी छाया चाहते हैं ऐसी जेठ माह की लू वाली तेज गर्मी में पर्वत शिखर पर तप करते हैं तथा गरजती हुई घनघोर घटाओं और प्रबल पवनों के झोंकों में अपने पुरुषार्थ को अधिकाधिक स्फुरायमान करते हुए स्थिर रहते हैं, शरीर सम्बन्धी राग को तोड़कर परमार्थ से प्रीति जोड़ते हैं, उन गुरुओं को हम हाथ जोड़कर प्रणाम करें।
जो वीतरागी को छोड़कर रागी को पूजते हैं वे निगोद के विहारी हैं।
वीतराग वाणी जगजीवन को सुखदानी, मिथ्या भ्रम हानि जगदेखन को जारी है।
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