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________________ रहित, सर्व पदार्थों का ज्ञाता दृष्टा और सब जीवों का हितकारक होता है। वह हितोपदेशी कहलाता है। शास्त्र का स्वरूप परमागमस्य जीवं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ (अमृतचन्द्र देव, पुरुषर्थसिद्ध्युयुपाय ) यहाँ गुणों को नमस्कार किया है। जन्मान्ध पुरुषों के हस्ति विधान का निषेध करने वाला, समस्त नयों से प्रकाशित वस्तु स्वभाव का विरोध दूर करने वाला, उत्कृष्ट जैन सिद्धान्त का जीव भूत अनेकान्त को ( एक पक्ष रहित स्याद्वाद को) मैं नमस्कार करता हूँ। इसका समर्थन आचार्य समंतभद्र के निम्न कथन से होता है। आप्तो पज्ञमनुल्लङ्घ्य-मदृष्टे ष्टविरो धकम् । तत्त्वोपदेशकृत्सार्व, शास्त्रं कापथघट्टनम् ॥ ( रत्नकरण्ड श्रावकाचार ) जो वीतराग का कहा हुआ हो, इन्द्रादिक से खंडित रहित, प्रत्यक्ष व परोक्ष आदि प्रमाणों से निर्बाध तत्त्वों या वस्तु स्वरूप का उपदेशक, सबका हितकारी और मिथ्यात्व आदि कुमागाँ का नाशक हो, उसे सच्चा शास्त्र कहते हैं। जिनवाणी और मिथ्यावाणी में अन्तर कैसे करि केतकी - कनेर एक कहि जाय, आक दूध-गाय दूध अन्तर घनेर है। पीरी होत री री पैन रीस करे कंचन की, कहाँ काक वाणी कहाँ कोयल की टेर है । कहाँ भान भारौं कहाँ आगिया बिचारी कहाँ, पूनौ को उजारौ - कहाँ मावस - अंधेर हैं। पच्छ छोरि पारखी निहारो नेक नीके करि, जैन वेन और जैन इतनो ही फेर है ॥ केतकी और कनेर को एक समान कैसे कहा जा सकता है। उन दोनों में तो बहुत अन्तर है । आक के दूध और गाय के दूध को एक समान कैसे कहा जा सकता है? उन दोनों में तो बहुत अन्तर है । इसी प्रकार यद्यपि पीतल भी पीला होता है, पर वह कंचन की समानता नहीं कर सकता है। 53 हे भाई! जरा तुम विचारो ! कहाँ कोए की आवाज और कहाँ कोयल की टेर ! कहाँ दैदीप्यमान सूर्य और कहाँ बेचारा जुगुनू । कहाँ पूर्णिमा का प्रकाश और कहाँ अमावस्या का अन्ध
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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