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क्षुधा, तृषा, राग, द्वेष, मोह, जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक, भय, स्वेद, खेद, निद्रा, मद, विस्मय (आश्चर्य), रति और चिन्ता ये 18 दोष समान रूप से सब संसारी जीवों के होते हैं। इन 18 दोषों से जो रहित हो वही आप्त और कर्ममल रहित होने से सच्चा देव है। आप्त की मुख्य तीन पहिचान
आप्ते नोच्छिन्नदोषण, सर्वज्ञे नागमे शिना।
भवितव्यं नियोगेन, नान्यथा ह्यप्तता भवेत्॥५॥ सच्चा देव नियम से अठारह दोष रहित वीतरागी सर्वज्ञ और हितोपदेशी होना चाहिए। ऐसा न होने पर सच्चा देवत्व नहीं हो सकता।
वीतराग का लक्षण क्षुत्पिपासाजराततङ्क जन्मान्तकभयस्मया: न रागद्वेषमोहाश्च, यस्याप्तः सःप्रकीर्त्यते॥६॥
(रत्नकरण्डश्रा.) जो भूख, प्यास, बुढ़ापा, रोग, जन्म, मरण, भय, गर्भ, राग, द्वेष, मोह, आश्चर्य, अरति. खेद, शोक, निद्रा, चिन्ता, स्वेद इन 18 दोषों से रहित होता है उसे वीतराग कहते हैं।
सर्वज्ञ का लक्षण तज्जयति परं ज्योतिः समं समस्तैरनन्तपर्यायैः। दर्पणतल इव सकला प्रतिफलति पदार्थमालिका यत्रा॥१॥
अमृतचन्द्र देव, पुरुषार्थसिद्ध्युपाय जिसमें दर्पण के तल की तरह समस्त पदार्थों का समूह अतीत, अनागत और वर्तमान काल की समस्त पर्यायों सहित प्रतिबिम्बित होता है, उस सर्वोत्कृष्ट शुद्ध चेतना रूप प्रकाश की जय हो।
हितोपदेशी का लक्षण परमेष्ठी परंज्योति-विरागो विमलः कृती। सर्वज्ञोऽनादिमध्यान्तः, सार्वःशास्तोपलाल्यते॥७॥
-समन्तभद्र, रत्नकरण्डश्रावकाचार जो इन्द्रादिक से पूज्य परमपद में स्थित अक्षय केवलज्ञान सहित, राग, द्वेषादि भावकर्म रहित, घातिया कर्म रूप द्रव्यकर्म रहित, कृतकृत्य, सत्यार्थ देव के प्रवाह की अपेक्षा आदि, अन्त, मध्य
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