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ऐसे वीतराग पाय सेवत कुदेव जाय, सोतो मूढ़ प्राणी निगोद के विहारी है। राज्यपद मांहि व्रत बिना पूज्य नाहीं भये, चक्रवर्ती काम-हली ओर की कहा चली। देवन के व्रत नाहि, समकित हू काह मांहि
श्रुत हूँ में अपूज्य तिन्हें पूर्णं श्रद्धा टली है। एक बार एक विद्याधर राजा (अर्धचक्री) दशानन से आकर बोलता है कि वानरवंशी राजा सूर्यरज व अक्षरज को राजा इन्द्र के यम नामक लोकपाल ने बन्दी बना लिया है और उन्हें नरक नामक बन्दीगृह में डाल दिया है, जहाँ उन्हें नरक समान ही कष्ट दिये जा रहे हैं। यह सुनकर राजा दशानन ने यम पर चढ़ाई की और उसे जीत लिया। यम परास्त होकर राजा इन्द्र के पास जाकर छिप गया। दशानन ने जीते हुए राज्यों में से किष्किंधपुर सूर्यरज को किष्कुपुर अक्षरज को दिया जहाँ वे सुख पूर्वक राज्य करने लगे। कालान्तर में सूर्यरज के बालि व सुग्रीव नामक दो पुत्र और श्री प्रभा नाम एक पुत्री हुई। राजा सूर्यरज का युवा पुत्र बालि अपने शक्ति मद में चूर दशानन की आज्ञा भंग करने लगा। अतः दशानन ने बालि के पास दूत भेजकर कहलवाया कि तुम सदा से हमारे मित्र रहे हो। हमने तुम्हारे पिता के शत्रु यम को हराकर उन्हें किष्किंधपुर का राज्य दिया, जहाँ अभी तुम सुख से राज्य कर रहे हो। तुम्हारे और हमारे वंशज बहुत समय से एक-दूसरे के मित्र रहे हैं। पर अब तुम उपकार भूलकर हमसे पराङ्मुख हो गये हो। यह कार्य सज्जनोचित नहीं है। मैं तुम्हारे पिता से अधिक तुमसे स्नेह करूंगा। अतः शीघ्र आकर मुझे प्रणाम करो
और अपनी बहन का विवाह हमसे करो। इससे तुम्हें सब प्रकार की सुख-सुविधा मिलेगी। पराक्रम के मद में चूर बालि अपने सामने किसी को कुछ न गिनता हुआ लंकापति दशानन से युद्ध के लिए तैयार होने लगा। पर विवेकशील मंत्रियों के समझाने पर युद्ध से विरत हो उसने सोचा, कि मैंने प्रतिज्ञा ली हुई है कि मैं वीतरागी देव, निग्रंथ गुरु और अनेकान्त-स्याद्वाद रूपी जिनवाणी के अतिरिक्त अन्य किसी को प्रणाम नहीं करूंगा; अत: मैं दशानन को प्रणाम करने वाली बात को स्वीकार नहीं कर सकता और प्रणाम न करने पर वे आक्रमण करेंगे अब मैं युद्ध भी नहीं चाहता, क्योंकि मेरे मान के कारण व्यर्थ ही हजारों जीवों की मृत्यु होगी। बहुत सोच-विचार के पश्चात् बालि ने अपना राज्य अपने छोटे भाई सुग्रीव को देकर जिनदीक्षा ले ली। कठिन तपस्या में रत बालि मुनि को अनेक ऋद्धियों की प्राप्ति हुई। बालि
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