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________________ __ आचार्य कुन्दकुन्द ने मोक्षपाहुड में सम्यक्त्व सहित मुनियों की महिमा का वर्णन करते हुए लिखा है सहव्वरओ सवणो सम्माइट्ठी हवेइ णियमेण। सम्मत्तपरिणदो उण खवेइ दुट्ठट्ठकम्माइं॥१४॥ नियम से निज द्रव्य में रत श्रमण सम्यकवंत है। सम्यक्त्व-परिणत श्रमण ही क्षय करें कर्मानन्त है। जो मुनि स्व अर्थात् अपनी आत्मा में रत है, रुचि सहित है, वह नियम से सम्यग्दृष्टि है और वही सम्यक्त्व भाव रूप परिणमन करता हुआ, दुष्ट आठ कर्मों का नाश करता है। अब आगे आचार्य सम्यक्त्व को व्यवहार और निश्चय के भेद से दो प्रकार का बताते हैं जीवादीसद्दहणं सम्मतं जिणवरेहिं पण्णत्त। ववहारा णिच्छयदो अप्पाणं हवइ सम्मत्तं॥२०॥ वर्शनपाहुड जीवादि का श्रद्धान ही व्यवहार से सम्यक्त्व है। पर नियत नय से आत्म का श्रद्धान ही सम्यक्त्व है। तत्त्वार्थ का श्रद्धान व्यवहार से सम्यक्त्व है, और अपनी (और) आत्मा का श्रद्धान ही निश्चय सम्यक्त्व है। आगे आचार्य योगीन्दु देव ने कहा है कि जो अपने को पर से भिन्न जानता है वही संसार से छूटता है जो परियाणइ अप्प परु जो परभाव चएइ। सो पंडिउ अप्पा मुणहु सो संसारु मुएइ॥८॥ निज पर का अनभव करे, पर तज ध्यावे आप। सम्यग्दृष्टि जीव सो, नाश करे त्रय आप॥ जो आत्मा को और पर को अर्थात् अपने से भिन्न पदार्थ को भले प्रकार पहचानता है तथा सब पर भावों का त्याग कर देता है, वही पंडित भेद विज्ञानी सम्यग्दृष्टि है वह अपने आत्मा का अनुभव करता है, वही संसार से छूट जाता है। मोक्षमार्ग में सम्यग्दर्शन की मुख्यता बताते हुए आचार्य समन्तभद्र कहते हैं दर्शनं ज्ञानचारित्रात, साधिमानमपाश्नते। दर्शनं कर्णधारं तन्मोक्षमार्गे पचक्ष्यते॥ (रत्नकरण्डप्रावकाचार) %E 46
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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