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________________ कोई कहता विष्णु को, कोई कहता भैरों को, कोई कहता महावीर को, वह व्यक्ति कहता है ये सब तो अपने-अपने धर्म के पक्ष में बोल रहे हैं। यह बात जमी नहीं। एक बार की बात है वह एक जंगल में जा रहा था, वहाँ उसने एक दिगम्बर मुनि को देखा, देखते ही वह उनसे प्रभावित हो गया और जाकर बोला महाराज जी नमोस्तु ! नमस्कार करके वह उनके चरणों में बैठ गया और उनसे पूछने लगा, महाराज जी मुझे एक बहुत बड़ी शंका उठ रही है कि पूजूँ किसे, कृपा करके इस शंका का निवारण करो, यह सुनकर वे वीतरागी संत बोले - जिसने राग द्वेष कामादिक जीते, सब जगजान लिया। सब जीवों को मोक्षमार्ग का निस्पृह हो उपदेश दिया ।। बुद्ध वीर जिन हरि-हर ब्रह्मा या उनको स्वाधीन कहो। भक्ति भाव से प्रेरित हो, यह चित्त उसी में लीन रहो ॥ अर्थात् जिस किसी में ये गुण मिलें वही पूज्य है, चाहे वह किसी भी नाम से पुकारा जावे। उपर्युक्त विवेचन के आधार पर हम कह सकते हैं कि जीव के अनादि संसार भ्रमण का कारण उसका मिथ्यात्व भाव है। मोहनीय कर्म के दो भेद होते हैं-दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय। दर्शन मोहनीय कर्म ही सम्यक्त्व का घात करता है। मिथ्यात्व भी दो प्रकार का हो जाता है - 1. गृहीत मित्यात्व; व 2. अगृहीत मिथ्यात्व । गृहीत मिथ्यात्व के भी पाँच भेद हो जाते हैं। इस मिथ्यात्व से छूटने का केवल एक उपाय है-स्व- आत्मा का चिंतन, सात तत्त्वों का श्रद्धान, देव, शास्त्र - गुरु पर अटूट श्रद्धान। स्व- पर भेद विज्ञान होने पर सम्यक्त्व की प्राप्ति और मिथ्यात्व का अभाव होता है। ये कामयन्ते क्षणभंगुरायै, कीर्त्यै स्थिराप्तौ न विवेकवन्तः । व्यपोह्य मूलं खलु जीर्णपत्रं, गृह्णन्ति ते मूढधियो दुमस्य || कीर्ति तो क्षणभंगुर वस्तु है । उसमें आत्मीयता की बुद्धि अविवेक है। जो स्थिर वस्तु की प्राप्ति की ओर कुछ भी लक्ष्य न रखते हुये इस अनित्य कीर्ति को चाहते हैं वे उस मनुष्य के समान हैं जो अपनी मूर्खतावश वृक्ष के मूल की तरफ कोई ध्यान नहीं देता हुआ केवल उसके जीर्ण-शीर्ण पत्तों की तरफ लक्ष्य देता है। कीर्ति की चाह भी वास्तव में ऐसी ही मूर्खता है। 44
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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