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________________ के पास गए और कहने लगे, साधु जी हमारे ऊपर कुछ कृपादृष्टि कर दो, साधु जी बोले- "बच्चे तुझे उस दिन की घटना याद है, या नहीं जिस दिन मैं भोजन लेने तुम्हारे घर पर गया था तुम लोगों ने मेरे टिफिन में भोजन, टिफिन साफ किये बिना नहीं परोसा था और कहा था कि बिना साफ किये भोजन अपवित्र हो जायेगा। खाने योग्य नहीं रहेगा। इसलिए बच्चा, उसी प्रकार, तुम हमसे कुछ पूछने से पहले तुम भी अपने मन को साफ करो क्योंकि मन के साफ किये बिना जो भी बात हम तुम्हें बतायेंगे वह एकदम अपवित्र हो जायेगी। इसलिए पहले अपने मन को साफ करके अर्थात् सब विकल्प छोड़कर आना तब हम तुम्हें बात बतायेंगे।" सेठ साधु के मन्तव्य को समझकर चरणों में गिर गया। गृहीत मिथ्यात्व का परिणाम एक व्यक्ति था, वह बहुत दु:खी था, क्योंकि उसके घर में दीमक बहुत लगती थीं, यहाँ तक कि कपड़ों में खाने-पीने की वस्तु में भी दीमक लग जाती थी, एक दिन उस गांव में एक ढोंगी पंडित आया और कहने लगा किसी को भूत-प्रेत का प्रकोप हो, मैं उसे दूर भगा देता हूँ, वह व्यक्ति बोला- "पंडित जी पता नहीं, किसका प्रकोप है मेरे घर में दीमक बहुत लगती हैं। कृपाकर आप चलकर देख लें।" वह गया, वहाँ जाकर कहता है कि किसी जिन्द का प्रकोप है, वह व्यक्ति कहता है- “अब क्या होगा पंडित जी?" पंडित बोला आप चिंता न करें, मैं जैसा कहूँ वैसा करें, आप सब अपनी आँखें बन्द कर लें तब मैं, उस जिन्द को घर से निकालूँगा, सब ने अपनी-अपनी आँखें बन्द कर ली, पंडित घर में गया, और जितना भी सोने, चांदी का जेवर था वह एक मटके में भर लिया, बाहर आया तो उन लोगों से कहता है- "अभी आप आँखें मत खोलना, नहीं तो सब करी-कराई मेहनत पर पानी फिर जाएगा, मैंने जिन्द को इस मटके में बन्द कर लिया है। इसे इतनी दूर छोड़कर आऊँगा, ताकि फिर यह कभी भी यहाँ पर न आवे।" यह कहकर वह पंडित चलता बना। वे सब लोग आँखें ही बन्द किये रहे, जब बहुत देर हो गई पंडित लौटकर नहीं आया, उन्होंने अपनी आँखें खोली और घर में जाकर देखा, तो सब सामान बिखरा पड़ा था, जब व्यक्ति ने सन्दूक में जाकर अपनी जिन्दगी भर की कमाई देखी तो वहाँ फूटी कौड़ी भी नहीं, वह माथे पर हाथ लगाकर रोने लगा, और कहने लगा अरे! मैं लुट गया-मैं लुट गया। अब पछताय होत क्या जब चिड़ियां चुग गई खेत। इसी प्रकार बन्धुओं आप तो जैन हो, आप लोग किसी अन्य पर विश्वास नहीं करना, यह बहुत बड़ा मिथ्यात्व है। एक और दृष्टान्त देखिए एक व्यक्ति था, वह सोचता है कि मुझे धर्म-कर्म करना चाहिए, पर पूर्जे किसको। वह सबसे पूछता, "भाई! पूजना किसे चाहिए।" कोई कहता लक्ष्मी को पूजो, कोई कहता ब्रह्मा को, - -
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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