SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 65
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ करके, सभी पहलुओं से, जब तक उसके गुण और दोष का यथार्थ निर्णय न किया हो, तब तक जीव के गृहीत मिथ्यात्व है और वह सर्वज्ञ वीतराग का सच्चा अनुयायी नहीं है। प्रश्न-इस जीव ने पहले कई बार गृहीत मिथ्यात्व छोड़ा होगा या नहीं? उत्तर-हाँ, जीव ने कई बार गहीत मिथ्यात्व छोड़ा और द्रव्यलिंगी मुनि हो निरतिचार महाव्रत पाले, परन्तु अगृहीत मिथ्यात्व नहीं छोड़ा इसलिए संसारी बना रहा और फिर गृहीत मिथ्यात्व स्वीकार किया। निर्ग्रन्थदशापूर्वक पंच महाव्रत तथा 28 मूलगुण आदि का जो शुभ विकल्प है वह द्रव्यलिंग है। गृहीत मिथ्यात्व छोड़े बिना जीव द्रव्यलिंगी नहीं हो सकता और द्रव्यलिंग के बिना निरतिचार महाव्रत नहीं हो सकते। वीतराग भगवान ने द्रव्यलिंगी के ही निरतिचार महाव्रत को भी बालव्रत और असंयम कहा है क्योंकि उसने अगृहीत मिथ्यात्व नहीं छोड़ा है। प्रस्तुत दृष्टान्त से स्पष्ट है मिथ्यात्व का त्याग एक बार एक बस्ती में एक साधु ठहरे हुए थे, प्रतिदिन वे भोजन के लिए गृहस्थों के यहाँ जाया करते थे। जिस रास्ते से वे गुजरते थे, उसी रास्ते में एक सेठ जी की दुकान पड़ती थी। सेठ जी उन साधु से रोज कहते कि साधु जी आज हमारे यहाँ भोजन कर लो। साधु जी कहते किसी दिन करेंगे बच्चा। सेठ जी प्रतिदिन कहते और साधु जी वही उत्तर देते। एक दिन साधु जी के मन में आया, कि आज सेठ जी के यहाँ से भोजन लेंगे। उन्होंने अपने साथ एक टिफिन कैरियर लिया। साधु जी सेठ की दुकान पर जाकर बोले- "बच्चा आज हम भोजन तुम्हारे घर लेंगे सेठ जी ने अपना धन्यभाग्य समझा, सेठ जी साधु जी को घर ले गये। साधु जी ने अपना टिफिन कैरियर भोजन परोसने के लिए दे दिया। टिफिन कैरियर जब खोलकर देखा गया, तब देखा उसके हर डिब्बे में, किसी में मिट्टी, किसी में रेत, किसी में भूसा, किसी में पत्थर के टुकड़े, यह देखकर सब आश्चर्य करने लगे। साधु जी कहने लगे- “क्या बात है, आप लोग भोजन इसी में परोस दो।" यह सुनकर सब लोग एक दूसरे की तरफ देखने लगे। साधु जी कहने लगे- "अरे! इस में भोजन परोस दो।" हिम्मत करके घर के लोग बोले- "साधु जी भोजन अपवित्र हो जायेगा। खाने के योग्य नहीं रहेगा।" साधु जी कहने लगे- "भोजन मुझे करना है, तुम परोस दो", पर किसी की हिम्मत भोजन परोसने की नहीं हुई। अन्त में साधु ने कहा- "क्या चाहते हो", घर वालों ने कहा, "साधु जी पहले डिब्बे को साफ करेंगे, उसके बाद भोजन परोसा जायेगा।" सबने ऐसा ही किया साधु भोजन लेकर चले गए। कुछ दिन बाद सेठ जी ने सोचा, साधु जी ने भोजन तो घर से ले ही लिया। अब तो जान-पहिचान हो गई है। कुछ कृपा दृष्टि की बात हो जाए, एक दिन सेठ जी साधु जी 42
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy