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________________ इसलिए श्री कुन्दकुन्दाचार्य कहते हैं मिथ्यात्वं परमं बीजं संसारस्य दुरात्मनः। तस्मात्तदेव मोक्तव्यं 'मोक्षसौख्यं जिघाणा॥५२॥ इस दुष्ट संसार का परम बीज एक मिथ्यादर्शन है, इसलिए मोक्ष के सुख की प्राप्ति चाहने वालों को मिथ्यादर्शन का त्याग करना उचित है। आगे और भी सम्यक्त्वेन हि मुक्तस्य धुवं निर्वाणसंगमः। मिथ्यादशोऽस्य जीवस्य संसारे भ्रमणं सदा॥४१॥ सम्यग्यदृष्टि जीव को अवश्य निर्वाण का लाभ होता है, किन्तु मिथ्यादृष्टि जीव का सदा ही संसार रहेगा। अनादि कालीन संसार में यह संसारी जीव मिथ्यादर्शन से अन्धा होकर भटक रहा है, इसलिए इस मिथ्यात्व का त्याग आवश्यक है। गृहीत मिथ्यात्व जो कुगुरु कुदेव कुधर्मसेव, पोषै चिर दर्शन मोह एव। अन्तर रागादिक धरै जेह, बाहर धन अम्बर सेसनेह॥९॥ धार कुलिंग लहि महत भाव, ते कुगुरु जन्म-जल-उपल नाव। जे राग-द्वेष मलकरि मलीन, वनिता गदादि जुत चिन्ह चीन॥१०॥ ते हैं कुदेव तिनकी जो सेव, शठ करत न तिन भव भ्रमण छेवा रागादि भाव हिंसा समेत, दर्वित त्रस-थावर मरणखेत॥११॥ जे क्रिया तिनै जानहु कुधर्म, तिन सरधै जीवलहैं अशर्म। या गृहीत मिथ्यात्व जान, अब सुन गृहीत जोहै अजान॥१२॥ (छहढाला) गृहीत मिथ्यात्व के विषय में कुछ जिज्ञासाएं और समाधान प्रश्न-जिस कुल में जीव जन्मा हो उस कुल में माने हुए देव-गुरु-शास्त्र सच्चे हों, यदि जीव लौकिक दृष्टि से सच्चा मानता हो तो उसको गृहीत मिथ्यात्व दूर हुआ या नहीं? उत्तर-नहीं, उसके भी गृहीत मिथ्यात्व है, क्योंकि सच्चे देव, सच्चे गुरु और सच्चे शास्त्र का स्वरूप क्या है, तथा कुगुरु, कुदेव और कुशास्त्र में क्या दोष है, इसका सूक्ष्मदृष्टि से ज्ञान - 41
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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