SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 63
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बड़े कुबोल बोलता है, ऐसा आत्मघाती और महापापी मिथ्यात्वी होता है। इसी प्रकार आचार्य योगीन्दु योगसार में कहते हैं कालु अणाइ अणाइ जीउ भवसायरु जि अणंतु । मिच्छादंसणमोहियउ णवि सुह दुक्ख जि पत्तु ॥४॥ काल का चक्र अनादि से चल रहा है, जब काल अनादि से चल रहा है, तब काल के भीतर काम करने वाले जीव भी अनादि से है, इसीलिए संसारी जीवों का भ्रमण रूप संसार भी अनादि से है, इस प्रकार यह जीव मिथ्यादर्शन कर्म के कारण मोही होता हुआ सुख नहीं पाता, दुःख ही पाता है। समाधिशतक में आचार्य पूज्यपाद स्वामी कहते हैं न तदस्तीन्द्रियार्थेषु यत् क्षेमङ्करमात्मनः । तथापि रमते बालस्तत्रैवाज्ञानभावनात् ॥५५ ॥ इन्द्रियों के भोग के भीतर आत्मा का हित नहीं है, तो भी मिध्यादृष्टि अज्ञान की भावना से उन्हीं में रमण करता रहता है। वे आगे और कहते हैं चिरं सुषुप्तास्तमसि मूढात्मानः कुयोनिषु । अनात्मीयात्मभूतेषु ममाहमिति जाग्रति ॥ ५६ ॥ अनादिकाल से मूढ़ आत्माएं अपने स्वरूप में सोई हुई हैं, खोटी योनियों में भ्रमण करती हुई स्त्री पुत्रादि पर पदार्थों के व अपने शरीर व रागादि विभावों को अपना मानकर इसी विभाव में जाग रही हैं और भी देहान्तरगते र्बीजं देहेऽस्मिन्नात्मभावना । बीजं विदेह निस्पत्ते रात्मन्ये वात्मभावना ॥ ६४ ॥ इस शरीर में स्वयं को मानना ही पुनः पुनः देह ग्रहण करने का बीज है। जबकि अपने आत्मा में ही रमण करना देह से छूट जाने का बीज है। योगसार में आचार्य योगीन्दुदेव कहते हैं वयतवसंजममूलगुण मूढहं मोक्ख णवुत्तु । जाव ण जाणइ इक्क पर सुद्धउ भाउ पवित्तु ॥ २९ ॥ जब तक एक परम शुद्ध व पवित्र भाव का अनुभव नहीं होता, तब तक मिथ्यादृष्टि अज्ञानी जीव के द्वारा किए गए व्रत, तप, संयम व मूलगुण पालन को मोक्ष का उपाय नहीं कहा जा सकता है। 40
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy