SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 62
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कोई व्यवहार नय निश्चय के मारग को, भिन्न-भिन्न जानकर करत निज उद्धता। जाने जब निश्चय के भेद व्यवहार सब, कारण को उपचार माने तब बुद्धता॥५॥ 2. विपरीत मिथ्यादर्शन-परिग्रह सहित भी गुरु हो सकता है, केवली कवलाहार करते हैं, स्त्री को भी मोक्ष प्राप्त हो सकता है, इत्यादि विपरीत श्रद्धान को, विपरीत मिथ्यादर्शन कहते हैं। 3. संशय मिथ्यावर्शन-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र मोक्ष के मार्ग हैं या नहीं? ऐसी द्विविधा को संशय मिथ्यादर्शन कहते हैं। 4. वैनयिक मिथ्यावर्शन-सब प्रकार के देवों तथा सब प्रकार के मतों में समान श्रद्धा का होना, वैनयिक मिथ्यादर्शन हैं। 5. अज्ञान मिथ्यादर्शन-हित और अहित के विचार रहित श्रद्धा को, अज्ञान मिथ्यादर्शन कहते हैं। - मिथ्यावृष्टि का लक्षण धर्म न जानत बखानत भरमरूप, ठौर-ठौर-ठानत लराई पक्षपात की। भूल्यो अभिमान में न पाउधरे धरनी मैं, हिरदै मैं करनी विचारै उत्पाद की। फिरे डामाडोलसौ करम के फलोलिन मैं, है रही अवस्था सुबधुते कैसे पात की। जाकी पाती ताती कारी कुटिल कुवाती भारी, ऐसौ ब्रह्मघाती है मिथ्यात्वी महापातकी। जो वस्तु स्वभाव से अनभिज्ञ है, जिसका कथन मिथ्यात्वमय है और एकांत का पक्ष लेकर जगह-जगह लड़ाई करता है, अपने मिथ्याज्ञान के अहंकार में भूलकर धरती पर पांव नहीं टिकाता और चित्त में उपद्रव ही सोचता है, कर्मों के झकोरों से डांवाडोल हुआ घूमता है, अर्थात् विश्राम नहीं पाता, जिसकी ऐसी दशा हो रही है, जैसे बधरुडे में पत्ता उड़ता रहता है, जो हृदय में (क्रोध से) तप्त रहता है (लोभ से) मलिन रहता है, (माया से) कुटिल रहता है, (मान से) 39
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy