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________________ तृतीय अध्याय : मिथ्यात्व अनादि से सभी संसारी प्राणी मिथ्यात्व बैरी के वशीभूत होकर इस विकट संसार में दुःख उठा रहे हैं, लेकिन आज तक इनका सम्यग्दर्शन रूपी मित्र से मिलाप नहीं हुआ है। वस्तुतः दर्शनमोह को मिथ्यात्व कहते हैं। इसके दो भेद हैं। मिथ्यात्व के दो भेद बताने के लिए आचार्य पूज्यपाद सर्वार्थसिद्धि में कहते हैं मिथ्यादर्शनं द्विविधं नैसर्गिक परोपदेशपूर्वकं च तत्रपरोपदेशमन्तरेण मिथ्यात्वकर्मोदयवशात् आविर्भवति तत्वार्थश्रद्धानलक्षणं नैसर्गिकम्।। मिथ्यादर्शन दो प्रकार का है-एक नैसर्गिक (अगृहीत) दूसरा अधिगमज (गृहीत) या पर उपदेशपूर्वक। अगृहीत मिथ्यात्व-जो पर के उपदेश के बिना ही मिथ्यात्व कर्म के उदय के बस से जीव-अजीवादि सात तत्त्वों का अश्रद्धान प्रकट होता है वह नैसर्गिक मिथ्यात्व है। 'इसी को दौलतराम छहढाला में कहते हैं मैं सुखी दुःखी मैं रंक राव, मेरे धन गृह गोधन प्रभाव। मेरे सुत तिय मैं सबल दीन, वे रूप सुभग मूरखप्रवीन॥४॥ तन उपजत अपनी उपज जान, तन नशत आपको नाश मान। रागादि प्रकट ये दुःखदेन, तिनहीं को सेवत गिनत चैन।॥५॥ यह साधारणत: सर्व ही एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय पर्यंत जीवों तक के पाया जाता है, जब तक मिथ्यात्व कर्म का उदय नहीं मिटेगा तब तक यह मिथ्यात्व भाव होता ही रहेगा। __ गृहीत मिथ्यात्व-यह पर उपदेश (कुगुरु कुदेव, कुशास्त्र) से होता है। मिथ्यात्व के पांच भेद हैं-एकांत, विपरीत, संशय, वैनयिक और अज्ञान। इनका विस्तार आगे करते हैं1. एकान्त मिथ्यादर्शन-अनेक धर्मवस्तु का एक धर्म रूप श्रद्धान होने को एकान्त मिथ्यादर्शन कहते हैं। जैसे-वस्तु नित्य ही है, अनित्य ही हैं, सत् ही है, असत् ही है, इत्यादि रूप श्रद्धा को एकांत कहते हैं। कोई नर निश्चय से आत्मा को शुद्धमान, हुआ है स्वच्छन्द न पिछाने निज शुद्धता। कोई व्यवहार दान तप शीलभाव को ही, आत्मा का हितमान छोई नहीं मूढ़ता। 38
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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