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लटका हुआ मिल जाता है। वह उसे उतारकर घर ले आता है। अब दोनों बूढ़ा और उसकी पत्नी बातें कर ही रहे थे कि पड़ोसन भी चुपके से अशर्फियों की थैली आँगन में डाल जाती है। _____ अब पुरुषार्थ कर्म से कहता है कि-मैय्या! अब दिखाओ तुम अफ्ना पुरुषार्थ। कर्म लाचार हो जाता है। चुप रह जाता है। सत्य यही है कि पुरुषार्थ में अपार शक्ति है। यद्यपि कर्म की भी सत्ता अवश्य है, किन्तु पुरुषार्थ ही प्रधान है, या यूँ कहिये दोनों साथ-साथ चलते हैं। मात्र कर्म पर आश्रित रहना महान् मूर्खता है। सब पुरुषार्थ आत्मा का है। स्वआत्मा का पुरुषार्थ ही सम्यग् पुरुषार्थ होता है, जिससे कर्म बन्धन सदा-सदा के लिए नष्ट हो जाता है। हमारा आज का पुरुषार्थ ही तो कल का कर्म होता है।
ज्ञानवरण दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय आत्मा के स्वभाव का घात करते हैं। इनमें भी मोहनीय सबसे खतरनाक कर्म है क्योंकि यह आत्मा के सम्यकत्व गुण का घात करता है। आत्मा के सम्यक् पुरुषार्थ से इन घातिया कमाँ को नष्ट किया जा सकता है और केवलज्ञान प्रकट किया जा सकता है। शेष चार कर्मों (वेदनीय, आयु, नाम, गोत्र) को अघातिया कर्म कहते हैं। ये भी जब समय रहते नष्ट हो जाते हैं तो जीव मुक्त हो जाता है। कर्म बन्धन से छट जाता है। कम
और पुरुषार्थ में सूक्ष्म भेद है। ये अपना फल इस प्रकार देते हैं कि साधारण व्यक्ति चकरा जाता है कि कौन प्रधान है और कौन नहीं? कर्म तो जड़ है, जड़ का कोई सम्बन्ध आत्मा से होता नहीं, किन्तु दिखता ऐसे है कि कर्म ही मुझे घुमाया करते हैं, किन्तु जब यह भ्रान्ति टूट जाती है, तब कर्म शनैः शनैः कमजोर पड़ते जाते हैं और पुरुषार्थ, जो आत्मा का अपना गुण है, कर्मों का अन्त कर देता है। इस प्रकार हम यह कह सकते हैं कि पुरुषार्थ ही प्रधान है, क्योंकि वही कर्मों को काटने वाला होता है। अतः सभी को अपनी स्वआत्मा को प्राप्त करने के लिए सम्यक पुरुषार्थ करना चाहिए।
पुत्रार्थ-लोकादि-समेषणासु, नूनं हि सर्वोपरि तिष्ठतीयम्।
द्वयोर्विनाशेषि लयो न चास्याः, अस्या विनाशे तु तयोर्न सत्वम्॥ विद्वानों ने एषणाएँ तीन प्रकार मानी हैं -लोकैषणा, पुत्रैषणा और धनैषणा। इन तीनों एषणाओं में लोकैषणा का छुटना सबसे कठिन है। धनैषणा और पुत्रैषणा नष्ट हो जाने पर भी लोकैषणा नष्ट नहीं होती। यदि यह लोकैषणा ही किसी तरह नष्ट हो जाए तो धनैषणा और पुत्रैषणा की तो अलग कोई सत्ता ही नहीं रहती।
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