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________________ कर्म व पुरुषार्थ यह आत्मा अनन्त शक्ति का धारक होकर भी अपनी शक्ति को भल रहा है। अपनी शक्ति को भूलने के कारण ही यह संसार में भटक रहा है। अपनी शक्ति को न पहिचानकर कर्म जनित दुःखों को भोग रहा है और दुःखी हो रहा है। अगर यह अपनी शक्ति को पहिचान कर यथार्थ पुरुषार्थ करे तो सर्व कर्मों के बंधन तोड़कर स्वतंत्र एवं सुखी हो जावे। कर्म के भेद सामान्य रूप से कर्म के तीन भेद हैं। विशेष 8 हैं और उत्तर भेद 148 हैं। सामान्य भेद 1. द्रव्यकर्म-ज्ञानावरणादि 8 कर्मों को द्रव्यकर्म कहते हैं। 2. भावकर्म-राग, द्वेषादि को भावकर्म कहते हैं। 3. नोकर्म-शरीरादि अन्य सहयोगियों को नोकर्म कहते हैं। जड़ कर्म घुमाता है मुझको, यह मिथ्याभाँति रही मेरी। मैं राग, द्वेष किया करता, जब परिणति होती जड़ केरी॥ द्रव्यकर्म-मूल में कर्म के 8 भेद हैं और उत्तर में 148 भेद हैं। 1. ज्ञानावरण-ज्ञानावरण कर्म के पाँच भेद हैं, जो उत्कृष्ट में 30 कोडाकोडी सागर तक सत्ता में रह सकता है, यह पर्दे का काम करता है। (जैसे-अरिहंत भगवान के ऊपर परदा डाल दिया जावे)। 2. दर्शनावरण-दर्शनावरण कर्म के नौ भेद हैं। जो उत्कृष्ट में 30 कोडाकोडी सागर तक सत्ता में रह सकता है। वह द्वारपाल का काम करता है। (जैसे-द्वारपाल राजा के दर्शन नहीं __ होने देता)। 3. मोहनीय-मोहनीय कर्म के 28 भेद हैं। (मोहनीय के दो भेद हैं)। 1. दर्शन मोहनीय-दर्शन मोहनीय उत्कृष्ट 70 कोडाकोडी सागर सत्ता में रह सकता है। 2. चारित्र मोहनीय-चारित्र मोहनीय उत्कृष्ट 40 कोडाकोडी सागर तक सत्ता में रह सकता है। 4. अंतराय-अंतराय कर्म के 5 भेद हैं। जो उत्कृष्ट रूप में 30 कोडाकोडी सागर तक सत्ता में रह सकता है। यह खजान्ची का काम करता है। (ये आत्मा के अनुजीवी गुणों का घात करते हैं)। । %3 - 31 D
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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