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________________ चला" ऐसा कहकर वह अनुभवी सिंह उसे अपने साथ ले गया, और एक कुएँ के पास जाकर बोला-'स्वच्छ पानी में देख तेरा चेहरा किसके समान है-सिंह के समान है या बकरे के समान।' और भी विशेष लक्षण बताने के लिए सिंह ने उसे कहा-'तू एक आवाज लगा और पहिचानकर, कि तेरी आवाज किसके समान है, शेर के समान या बकरे के समान।" सिंह के बच्चे ने जैसे ही गर्जना की, वहीं उसे विश्वास हो गया, कि मैं शेर हूँ। वह भूल से सिंहपना भूलकर अपने को बकरे के समान मान रहा था। इस प्रकार लक्षण के द्वारा उसका असली स्वरूप बताकर अनुभवी सिंह ने उससे कहा 'अरे सिंह के बच्चे! तू इन बकरों की टोली में शोभा नहीं देता आ....आ.... हमारी टोली में।" इसी प्रकार यहाँ भी सिंह के समान अर्थात् सिद्ध भगवान के समान भगवान आत्मा अपने परमात्मस्वरूप को भूलकर स्वयं को बकरी के बच्चे के समान दीन-हीन-पामर-रागी, द्वेषी मानकर भव-भव में भटक रहा है। उसे जाग्रत करने के लिए धर्म-केशरी सर्वज्ञ परमात्मा और संत भगवन्त चैतन्य का सिंहनाद करके बताते हैं, कि अरे! जीव! तू तो हमारी जाति का परमात्मा है। जैसे परमात्मा हम हैं वैसा ही परमात्मा तू है। तू देहवाला या रागी या दीन-हीन बकरी के समान नहीं है, तू तो सिद्ध जैसा है। निर्मल ज्ञान दर्पण में तू अपने स्वरूप को देख। तेरी चैतन्य मुद्रा हमारे साथ मेल खाती है। जड़ के साथ, तुझे स्वसंवेदन होने पर ही ऐसा दृढ़ विश्वास होगा, कि तू हमारे समान परमात्मा है और 'मैं सिद्ध हूँ'-ऐसे स्वसम्मुख वीर्य के साथ श्रद्धा का सिंहनाद कर-तुझे तेरा सिद्धपना स्पष्ट प्रतीत में आ जायेगा। 'बेटा तू सिद्ध प्रभु के समान है, इस संसार में पुद्गल की टोली में तुझे रहना शोभा नहीं देता। आ.....जा.... हमारी सिद्धों की टोली में" ___ इस प्रकार सर्वज्ञ प्रभु की वाणी के सिंहनाद से अपने सिद्ध प्रभु का भान करके ही मुमुक्षु जीव आनन्दित होता है, उसका हृदय उल्लसित हो जाता है, और मोक्ष को साधकर वह भी फिर सिद्धों की टोली में मिल जाता है। अहो! देखो तो सही, वीतरागी संतों की पुकार!! आत्मा का परमात्मपना बताकर हम जैसे पामर प्राणियों पर कितना उपकार किया है। भगवान महावीर अपनी वीतरागता, सर्वज्ञता और हितोपदेशी पने से पूज्य है न कि कोई सन्तान देने, चमत्कार या वरदान के लिये। 30
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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