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________________ बीज बने पुष्प एक विदेशी महिला थी। एक बार उसने सम्पूर्ण विश्व का परिभ्रमण करने का निश्चय किया। वह पर्याप्त संपन्न थी। अपने निश्चय के अनुसार वह विश्व परिभ्रमण के लिए निकल पड़ी। उसके पास मात्र एक झोला था। लोग उसे देखते, उसका संकल्प देखकर आश्चर्य से उनकी आँखें विस्फारित हो उठती। बात आश्चर्य के योग्य भी थी। जब वह गाड़ी से अलग पैदल यात्रा करती, तो झोले में से कुछ निकालकर निरंतर बाहर फेंकती जाती। लोगों ने उससे पूछा-देवी जी, अन्यथा न माने। हमारी जिज्ञासा हमें आपसे पूछने के लिए बाध्य कर रही है। आप अपने झोले से, निरंतर 'कुछ' निकालकर यत्र-तत्र फेंकती जा रही हैं हमें बताये वह क्या है? देवी जी ने अपनी मधुर मुस्कान विकीर्ण करते हुए समस्त वातावरण को मैत्रीपूर्ण भाव से आलोकित करते हुए कहा-ये सुन्दर-सुन्दर फूलों के बीज हैं। मैं इन्हें इस तप्त भूमि पर इसलिए फेंक रही हूँ, कि जब भी वर्षा होगी, वातावरण शांत, अनुकूल होगा, ये अंकुरित होंगे-और तब मौसम में इन पर सुन्दर-सुन्दर रंग-बिरंगे फूल खिलेंगे। लोगों ने उनसे पूछा-"देवी जी, क्या उन सुन्दर-सुन्दर फूलों को देखने के लिए आप पुनः इसी मार्ग से लौटेंगी?" उसने पुनः उसी सहज मुस्कान में कहा-"मैं निकलूं या न निकलूं इससे क्या फर्क पड़ता है। अरे! सुन्दर-सुन्दर फूल अनुकूल वातावरण में पुष्पित होंगे, खिलेंगे, उनकी मधुर भीनी-भीनी गंध से वातावरण प्रसन्न होगा। उसे देखकर मानवता मुकुलित होगी, आनन्द विभोर होगी, क्या यही मेरे लिए पर्याप्त आनन्ददायी नहीं है। मैंने अपने जीवन में प्रभु से यही वरदान मांगा है। उसने मेरे जीवन में फूल खिलाये हैं-मैंने भी मुक्तहस्त से बाँटना शुरू कर दिया है।" सच बिल्कुल इसी प्रकार होता है धर्मी का स्वभाव। एक और दृष्टान्त सिंह पुत्र की कहानी एक सिंह का बच्चा था, वह भूल से बकरों के झुण्ड में शामिल हो गया और स्वयं को बकरा समझकर बकरों के समान व्यवहार करने लगा। एक अनुभवी वृद्ध सिंह ने उसे देखा और जाग्रत करने के लिए उसने सिंहनाद किया। सिंह की गर्जना सुनकर झुण्ड के सारे बकरे डरकर भाग गये लेकिन सिंह का बच्चा वहीं निर्भयता से खड़ा रहा, उसे सिंह से डर नहीं लगा। तब वह वृद्ध सिंह उसके पास जाकर प्रेम से बोला 'अरे बच्चे! तू मैं.....मैं..... करने वाली बकरी नहीं है। तू तो महा पराक्रमी सिंह है। देखो मेरा सिंहनाद सुनकर बकरे तो सब भाग गये, लेकिन तुझे क्यों नहीं डर लगा? क्योंकि तुम तो सिंह हो। हमारी जाति के हो। यदि विश्वास न हो तो विशेष परिचय करने के लिए मेरे साथ - 29
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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