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________________ उल्लेख न हो, तदपि यथोचित रूप में वहाँ भी इन्हें अपने पर लागू कर लेना चाहिए अथवा आप भी इन्हें यथाशक्ति अपने जीवन में उतारने का प्रयत्न करें। विशेष-कायरों की क्षमा-क्षमा नहीं, स्वार्थियों की विनय-विनय नहीं, बगुले भक्तों की पवित्रता-पवित्रता नहीं। मूखों की सरलता-सरलता नहीं। एकातियों का सत्य-सत्य नहीं। रोगियों का संयम-संयम नहीं। ढोंगियों का तप-तप नहीं। छमियों का त्याग-त्याग नहीं। गरीबों का आकिंञ्चन-आकिंञ्चन नहीं। नपुंसक का ब्रह्मचर्य-ब्रह्मचर्य नहीं। रत्नत्रय धर्म-रत्नत्रय धर्म है। द्यानतराय जी कहते हैं सोई लोकालोक निहारे, परमानन्द-दशा विस्तारे। आप तिरे औरनतिरवावे, जो सम्यक्रनत्रयध्यावे॥ जो रत्नत्रय को ध्याता है, लोकालोक को निहारने वाला कैवल्य प्राप्त करके परमानन्द को प्राप्त करता है और उस बताए हुए मार्ग पर चलकर वह भव्य प्राणी संसार सागर से पार होता है। आचार्य समन्तभद्र कहते हैं सदृष्टिज्ञानवृत्तानि, धर्मं धर्मेश्वरा विदुः। यदीय-प्रत्यनीकानि, भवन्ति भवपद्धति॥३॥ धर्म के उपदेशक तीर्थङ्करदेव ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र को धर्म कहा है और इसके विपरीत मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र को संसार बढ़ाने की पद्धति कहा है। तत्त्वार्थसार के उपसंहार में आचार्य अमृतचन्द्र देव कहते हैं निश्चयव्यवहाराभ्यां मोक्षमार्गो द्विधा स्थितः। तत्राद्यः साध्यरूपः स्यादद्वितीयस्तस्य साधनम्॥२॥ श्रद्धानाधिगमोपेक्षाः शुद्धस्य स्वात्मनो हि याः। सम्यक्त्वज्ञानवृत्तात्मा मोक्षमार्गः स निश्चयः॥३॥ श्रद्धानाधिगमोपेक्षा याः पुनःस्युः परात्मनाम्। सम्यक्त्वज्ञानवृत्तात्मा स मार्गो व्यवहारतः॥४॥ मोक्षमार्ग निश्चय तथा व्यवहार से दो प्रकार का है। निश्चय मार्ग साध्य है, व्यवहार साध न है। अपनी ही शुद्ध आत्मा का श्रद्धान ज्ञान व स्व पर से उदासीन भाव रूप अपेक्षा या स्वरूप में लीनता ऐसा निश्चय रत्नत्रय स्वरुप आत्मा का शुद्ध भाव निश्चय मार्ग है। षट् पदार्थों की अपेक्षा से श्रद्धान, ज्ञान व त्याग करना व्यवहार रत्नत्रय मोक्षमार्ग है। व्यवहार के द्वारा निश्चय को प्राप्त करना चाहिए। 26 -
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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