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इसी को 'पुरुषार्थसिद्ध्युपाय' में आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं
दर्शनमात्मविनिश्चितिरात्मपरिज्ञानमिष्यते बोधः । स्थितिरात्मनि चारित्रं कुत एतेभ्यो भवति बन्धः ॥ २१६ ॥ सम्यक्त्वबोधचरित्रलक्षणो मोक्षमार्ग इत्येषः । मुख्योपचाररूपः प्रापयति परं पदं पुरुषम् ॥ २२२ ॥
अपनी आत्मा का निश्चय होना सम्यग्दर्शन है। अपनी आत्मा का ज्ञान सम्यग्ज्ञान है। अपनी आत्मा में स्थिरता सम्यग्चारित्र है । इन तीनों से कर्म बन्ध नहीं होता। निश्चय व्यवहार रत्नत्रय स्वरूप मोक्षमार्ग आत्मा को परमपद में पहुँचा देता है।
धर्म का लक्षण - " धर्म के अनेक लक्षण बताये जाते हैं, प्रत्येक में कुछ न कुछ स्वार्थ छिपा हुआ है, अतः परीक्षा करके तू स्वयं पहिचान सकता है उनकी असत्यार्थता को। जिसे रोटी खाने को नहीं मिलती, वह कहता है कि भूखों को भोजन बांटना धर्म है। जिसे ख्याति की भावना है, वह कह रहा है कि जन्मदिन मनवाने में धर्म है। जिसे पैसों की भूख लगी है वह कह रहा है कि दिवाली पर जुआ खेलना धर्म है। जिसे मांस खाने की पड़ी है, वह कह रहा है कि देवता पर बलि चढ़ाना धर्म है। जिसे स्वयं धनिक जनों से द्वेष है वह कह रहा है कि उनका धन छीन लिया जाना ही धर्म है। जिसे भोगों की अभिलाषा है, वह कह रहा है कि धर्म-कर्म नहीं है खाओ पिओ मौज उड़ाओ यही धर्म है। जो उपायहीन है, वह कहता है, कि भगवान को भोग लगाना धर्म है। जिसमें द्वेष की अग्नि अधिक है, वह कह रहा है कि शास्त्रार्थ करना धर्म है। फलितार्थ, जितने मुँह उतनी बातें, जितनी जाति की रुचि उतने जाति के धर्म । इस जाति के लक्षणों की असत्यार्थता तो स्पष्ट ही है, कुछ कहने की आवश्यकता नहीं। क्योंकि इसमें स्वार्थ का ही नग्न नृत्य हो रहा है।
'धर्म क्या है?' अब इस बात की ओर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहूँगा । धर्म एक ऐसा विज्ञान है जिसके माध्यम से मानव अपनी चेतना को, मन को केन्द्रित करता है व्यवस्थित करता है जिससे अनादि की विक्षिप्त-चेतना, विक्षिप्त मन, विक्षिप्त संगीत एक स्वर में जाग्रत हो जाए, अंतरंग के स्वरों के साथ सामंजस्य स्थापित हो जाए। धर्म के माध्यम से अनादि का विक्षिप्त मन शांत हो जाता है और आत्मा से शांति के झरने फूटने लगते हैं। धर्म के माध्यम से चेतना में शांति की एक ऐसी भूमिका का सृजन हो जाए कि, उस शांति का सामीप्य पाकर स्वयं शांति का अनुभव कर सकें। इन सबकी प्राप्ति के लिए ही यत्न करना चाहिए।
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