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________________ धर्म का स्वरूप धर्म न बाडी नीपजे, धर्म न हाट बिकाय। धर्म विवेकी नीपजे, जे समझे ते थाय।। धर्म के बारे में आचार्य पद्यनन्दि धम्मरसायण में कहते हैं बुहिजणमणोहिरामं जाइजरामरणदुक्खणासयरं। इह परलोयहिय तं धम्मरसायणं वोच्छं॥२॥ मैं उस धर्म रसायन को बताऊँगा जिसके पीने से ज्ञानी जीवों के मन में आनन्द होगा व जन्म, मरण, जरा, रोग के दुःखों का क्षय होगा व इस लोक में और पर लोक में हित होगा यह जब तक जीयेगा, (परलोक में शीघ्र सिद्ध होकर) परमानन्द भोगेगा। इसी प्रकार आचार्य समन्तभद्र कहते हैं देशयामि. समीचीनं, धर्मकर्म निवर्हणम्। संसारदुःखतः सत्वान्, यो धरत्युत्तमे सुखे॥२॥ भावार्थ जो जीवों को संसार के दु:खों से निकालकर उत्तम सुख में पहुँचाता है मैं उस धर्म को कहूँगा। प्रश्न है धर्म कहते किसे हैं, वह कैसा है इसका उत्तर यह है कि निश्चय से वस्तु का स्वभाव ही धर्म है जैसे आत्मवस्तु का स्वभाव जानना। व्यवहार से अहिंसा, दशलक्षण ही धर्म है, और रत्नत्रय ही धर्म है। अहिंसा-हिंसा में कभी भी धर्म नहीं हो सकता। हिंसा के दो भेद हैं। द्रव्य हिंसा, भाव हिंसा। द्रव्य हिंसा के दो भेद हैं- स्वद्रव्य हिंसा, परद्रव्य हिंसा। भाव हिंसा के भी दो भेद हैं। स्वभावी भावहिंसा और विभावी भावहिंसा। दशलक्षण धर्म-दशलक्षण धर्म को भी धर्म कहते हैं उसके दस भेद हैं। उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन और ब्रह्मचर्य। इनमें से पहले चार धर्म उपर्युक्त चार कषायों के विरोधी हैं; संयम, सत्य, त्याग, ब्रह्मचर्य और आकिञ्चन्य क्रमशः हिंसादि पांच पापों के विरोधी हैं, और तप का सम्बन्ध निर्जरा से है। इसी कारण इनको दश धर्म न कहकर 'दशलक्षण धर्म कहा जाता है अर्थात् दस लक्षणों या अंगो का एक अखण्ड धर्म। यद्यपि उत्कृष्ट रूप से ये परिणाम अन्तर्मुखी साधु जनों के ही हैं, तदपि गृहस्थ जीवन में इनका सर्वथा अभाव हो ऐसा नहीं है। अतः भले ही श्रावक अथवा गृहस्थ धर्म में इनका 25
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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