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1. मेरा है, सो मेरा है, तेरा भी मेरा है इस तरह का मनुष्य दूसरों का धनादि लूटता रहता है, यह घोर मिथ्यादृष्टि है।
2. तेरा है सो मेरा है, मेरा है सो मेरा है- यह मनुष्य भी सही नहीं है यह भी मिथ्यादृष्टि है।
3. तेरा है सो तेरा है, मेरा है सो मेरा है, वक्त पड़े तो मेरा भी तेरा है- यह मनुष्य उन दोनों से अच्छा है, इसके अन्दर करुणा भाव है।
4. मेरा है न तेरा है चिड़िया रैन बसेरा है- यह मनुष्य उन तीनों से अच्छा है, ऐसा मनुष्य ही उग्र पुरुषार्थ से आत्मा का अनुभव कर मुक्ति को प्राप्त करता है। कुछ मानव तो मनुष्य रूप में पशु तुल्य ही होते हैं
येषां न विद्या न तपो न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः । ते मृत्युलोके भुवि भारभूता, मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ।
जिसके पास न विद्या है, न तप है, न दान देते हैं, न ज्ञान है, न शील है, न गुण है, और न धर्म है, वे पृथ्वी पर भार स्वरूप हैं और मनुष्य रूप में पशु के समान हैं।
इन दृष्टान्तों के आधार पर हम कह सकते हैं कि यह जीव अनादि काल से अपने ही कर्मों से पतित अर्थात् पापमय होकर संसार में भटक रहा है, दुःख भोग रहा है। सही उपाय न जान के कारण यह अपने सच्चे सुख को नहीं प्राप्त हुआ। आचार्य उपदेश देते हैं कि यदि यह पंचेन्द्रिय विषयों को त्याग दे, अपना क्या है और क्या नहीं है, इसका भेद विज्ञान करके, अपनी स्व आत्मा के अलावा कुछ भी नहीं है, इस संसार में, ऐसी श्रद्धा करके यदि वह अपने आत्मा का ध्यान करे तो, यह अनादि काल का दुःखी पतित प्राणी पवित्र बन सकता है। इसलिए आचार्य कहते हैं कि हे मानव! अगर तुम्हें अपना मानव जीवन सफल बनाना है तो महावीर जैसे भव - तारक, कुन्दकुन्द जैसे निर्ग्रथ, भरत जैसे सम्यकदृष्टि, श्रेणिक जैसे श्रोता, रामचन्द्र जैसे महान्, सीता जैसी शीलवती, चन्द्रगुप्त और गाँधी जैसे महान बनना चाहिए।
जिनवाणी का गहराई से अध्ययन नहीं करना ही तात्त्विक विवादों का मूल कारण है।
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