SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 454
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ होगा। उन्हें अपने रूप- लावण्य पर बहुत अभिमान था। कहने लगीं हमें एक रात्रि उनसे विचार-विमर्श का अवसर दिया जाये, हम उन्हें राजी कर लेंगे। कन्याओं के पिता ने जम्बूकुमार के पिता से ऐसा ही आकर कहा कि जम्बूकुमार को एक रात्रि के लिए तैयार कर लीजिए। मेरी पुत्रियाँ उनसे विचार-विमर्श करना चाहती हैं। यदि वे सहमत न होंगे तो अगले दिन दीक्षा ले लें। हमें कोई आपत्ति नहीं होगी। जम्बूकुमार मान जाते हैं। उन्हें अपने ऊपर पूर्ण विश्वास था । विवाह हो जाता है। अब रात्रि के समय चारों कन्याएं और जम्बूकुमार महल में एकान्त में बैठे हैं। चारों कन्याओं से घिरे जम्बूकुमार की इन वधुओं से चर्चा होने लगती है। वधुएँ रागवर्धक अनेक प्रश्नोत्तरों तथा कथा कहानियों, दृष्टान्तों द्वारा जम्बूकुमार को निरुत्तर करने या रिझाने में समर्थ नहीं हो पाती हैं। उन्होंने श्रृंगार परक हाव-भाव रूप चेष्टाओं का अवलम्बन भी लिया। किन्तु जम्बूकुमार पर वे प्रभाव डालने में सर्वथा असमर्थ रहीं। इधर विद्युत चोर अपने 500 साथियों के साथ महल में चोरी करने आता है और छिपकर खड़ा हो जम्बूकुमार और उनकी स्त्रियों की सारी वार्ताएं सुनता है । वह भी सम्पूर्ण रात्रि को कन्याओं की राग की और जम्बूकुमार की वैराग्य की बातें सुनकर, चोरी करना भूल जाता है। तात्पर्य यह एक रात्रि में वधुओं का राग जम्बूकुमार के वैराग्य को खत्म न कर सका । प्रातः चिड़िया चहचहाने लगती हैं। सुबह हो जाती है। जम्बूकुमार दीक्षा लेने सुधर्म स्वामी के पास जाने लगते हैं। उन्हीं के साथ चारों वधुएँ, विद्युत चोर एवं उसके 500 साथी भी विरक्त हो जाते हैं। वातावरण पूर्ण वैराग्यमयी हो जाता है। चोर विचार करने लगते हैं कि जम्बूकुमार इतने वैभव को छोड़कर जा रहे हैं, क्या तुम उसे ग्रहण करोगे? कदापि नहीं, हम भी अपने कर्मों का नाश करेंगे। अतः सभी दीक्षित हो जाते हैं। जम्बूकुमार तपस्या कर मथुरा से उसी भव में मोक्ष चले जाते हैं। इस प्रकार यह दृष्टान्त राग से वैराग्य, वैराग्य से मुक्ति कैसे होती है, इसका एक अनुपम उदाहरण है। संसार भ्रमण का कारण जीव का मोह, राग-द्वेष का होना, तथा स्व-पर भेद विज्ञान का न होना है। यदि यह जीव अपने दुःखों का उचित उपाय करता तो आज उसकी यह विकट स्थिति क्यों होती? वह कभी पुण्य को सुख मानता रहा तो कभी भोगों में मोहित होकर मग्न रहने लगा। पर को अपना माना, यह जीव की सबसे बड़ी भूल थी। इस संसार में स्व आत्मा के अतिरिक्त तिल-तुष मात्र भी अपना नहीं है, ऐसा श्रद्धान बने तो जीव का भ्रम मिटे। पर को अपना मानना छूटे। यदि स्थाई सुख को प्राप्त करना तो दृष्टि को अन्तर्मुखी करना होगा। बहिर्मुखी दृष्टि तो अनादिकाल से आज तक रही। किन्तु दुःखों का अन्त नहीं हुआ। अतः सुख को वहीं खोजना होगा जहाँ पर वह निवास करता है अर्थात् स्व आत्मा के द्वारा स्वआत्मा में ही खोज करनी होगी और मिल जाने पर वहीं स्थिर रह जाना होगा। 435
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy