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संसार के भोगों में, इन्द्रिय विषयों के सुख नहीं सुखाभास हैं। आत्मा का स्वभाव ज्ञाता दृष्टा है, उसी के अनुरूप जो जीव रहते हैं वे ही राग से छूटते हैं और वैरागी बनते हैं, तदुपरान्त मुक्त हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त दुःखों से छूटने का कोई उपाय नहीं है पं. दौलतराम जी कहते हैं कि
यह राग आग दहै सदा, तातै समामृत सेइये। चिर भजे विषय-कषाय अब तो, त्याग निजपद बेइये॥ कहा रच्यो पर पद में, न तेरो पद यहै, क्यों दुःख सहै।
अब ‘दौल' होऊ सुखी स्वपद रचि दाव मत चूको यहै। यह राग रूपी अग्नि संसारी जीवों को अनादि काल से सताती हुयी चली आ रही है। उसका निवारण करने के लिए समता रूपी अमृत का सेवन करना चाहिए। विषय कषायों का सेवन करते हुए अनंतकाल बीत चुका है फिर भी तृप्ति नहीं हुई, अतः अब इसका त्याग करके अपनी आत्मा में मगन हो जाओ, लीन हो जाओ। आज तुम्हें सद्गुरु-वीतरागी देव और सशास्त्र के निमित्त मिले हैं, जिनका अवसर नहीं खोना चाहिए जिससे राग से वैराग्य और वैराग्य से मुक्ति प्राप्त हो सके।
राग से वैराग्य और वैराग्य से मुक्ति का यही एकमात्र उपाय है।
उत्सव है केशलौंच का अभिमान का दर्शन। मुनियों के आगे बाजे केवल राग का साधन।। क्या कोई है शादी जो बैंड बाजे बजाते। आचार्य सूर्यसागर की महिमा कौन बताते॥
जन्म दिन मनाना है पुद्गल को सजाना। पुद्गल को सजाना है आत्मा को रुलाना॥ ये वीतराग मार्ग हमें कौन दिखाते॥ आचार्य सूर्यसागर की महिमा कौन बताते॥
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