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के लक्ष्य द्वारा अन्तरङ्ग परिणामों की जो शुद्धता होती है, सो सम्यक् ध्यान तप है। इस प्रकार तप के कुल 12 भेद होते हैं, छह बाह्य तथा छह अन्तरङ्ग इन तपों को सद्गृहस्थ को अपनी भूमिकानुसार प्रतिदिन अवश्य करना चाहिए।
तप के भेद
(2) अन्तरंग तप
(1) वाह्य तप 1. सम्यक् अनशन 2. सम्यक् अवमौदर्य 3. सम्यक् वृत्तिपरिसंख्यान 4. सम्यक् रसपरित्याग 5. सम्यक् विविक्तशय्यासन 6. सम्यक् कायक्लेश
1. सम्यक् प्रायश्चित 2. सम्यक् विनय 3. सम्यक् वैयावृत्य 4. सम्यक् स्वाध्याय 5. सम्यक् व्युत्सर्ग 6. सम्यक् ध्यान
संयम तथा तप में अन्तर संयम के अन्तर्गत इन्द्रियों और मन पर नियन्त्रण किया जाता है, जबकि तप के अन्तर्गत कषायों का शमन किया जाता है। इच्छाओं का दमन किया जाता है। । प्रतिदिन तप करने से, चाहे वह तप किसी भी रूप में किया जाये, उससे श्रावक की आत्मा परिष्कृत होकर विकसित होने लगती है। वही श्रावक आगे जाकर मुनिधर्म अंगीकार करता है। अपनी तपस्या के बल पर अन्यों को भी प्रभावित करता है। संसार में दो ही प्रकार के मनुष्य पाये जाते हैं। एक तो तालाब के समान होते हैं, जो एक स्थान पर बंद हैं, वहीं पर गन्दगी फैला रहे हैं. वहीं पर सड़ रहे हैं और वहीं पर समाप्त हो रहे हैं। ये वे मानव हैं जो अपने जीवन में कोई तप नहीं करते, इनका जीवन व्यर्थ है। दूसरी ओर सरिता के समान भागते हुए लोग हैं, जो सागर को प्राप्त करने की आकांक्षा से भरे हुए हैं। ये वे लोग हैं जो तप करते हैं, तपस्वी कहलाते हैं। किन्तु सरिता के समान विश्व में ऐसे कितने लोग हैं? ये तो नहीं के बराबर हैं। जब संसार में सरिता के समान लोग रहते हैं तब उतना ही अधिक धर्म होता है, सुसंस्कृति होती है, तथा तालाब के समान लोग जितने बढ़ते जाते हैं संस्कृति उतनी ही अधिक विकृत होती जाती है, और अन्त में नष्ट हो जाती है। धर्म भी विलीन होता जाता है। यह सर्वविदित है कि आकाश में बदलियाँ
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