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अन्तरङ्ग परिणामों की मुख्यता रहती है तथा जिनका स्वयं ही संवेदन होता है, वे तप अन्तरङ्ग तप कहलाते हैं। ये देखने में नहीं आते। यह अन्तरङ्ग तप छह प्रकार का होता है जैसा कि आचार्य उमास्वामी कहते हैं किप्रायश्चित्तविनयवैयावृत्यस्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानान्युत्तरम्॥ -त० सूत्र 9.20
सम्यक् प्रकार से-(1) प्रायश्चित (2) विनय (3) वैयावृत्य (4) स्वाध्याय (5) व्युत्सर्ग और (6) ध्यान। ये छळ अन्तरङ्ग तप हैं।
विशेष-यह तप के अन्तरंग भेद सम्यग्दृष्टि के हैं, मिथ्यादृष्टि के नहीं। इसलिए सम्यक् प्रकार से कहा गया है।
छह अन्तरङ्ग तपों का संक्षिप्त वर्णन निम्न प्रकार हैंसम्यक प्रायश्चित-प्रमाद अथवा अज्ञान से लगे हुए दोषों की शुद्धता करने से वीतराग स्वरूप के आलंबन के द्वारा जो अन्तरंग परिणामों की शुद्धता होती है, उसे सम्यक् प्रायश्चित तप कहते हैं। सम्यक् विनय-अपने गुण में दीक्षा में, आयु में, ज्ञान में, एवं व्रत में जो अधिक हो उन पूज्य पुरुषों का आदर सत्कार करना, उच्चासनादि देना आदि करने पर वीतराग स्वरूप
अन्तरङ्ग परिणामों की शुद्धता होती है, उसे सम्यक् विनय तप कहते हैं। 3. सम्यक् वैय्यावृत्य-शरीर तथा अन्य वस्तुओं से मुनियों की सेवा करने पर, वृद्ध-रोगी-दीन
अन्धा-लंगड़ा आदि की ग्लानि छोड़कर सेवा करने पर वीतराग स्वरूप के लक्ष्य द्वारा अन्तरङ्ग परिणामों की जो शुद्धता होती है, उसे सम्यक् वैय्यावृत्य तप कहते हैं। सम्यक स्वाध्याय-सम्यग्ज्ञान की भावना में आलस्य न करना, जिन शास्त्रों से स्व अर्थात आत्मा का ज्ञान हो, ऐसे समीचीन पदार्थों के दर्शाने वाले शुद्ध निर्दोष शास्त्रों का अध्ययन करना, कराना एवं उसकी शिक्षा पर ध्यान रखना, जहाँ तक बने आत्मधर्म में शिथिलता न आने देना, इनमें वीतराग स्वरूप के लक्ष्य के द्वारा अन्तरङ्ग परिणामों की जो शुद्धता होती
है, उसे सम्यक् स्वाध्याय तप कहते हैं। 5. सम्यक् व्युत्सर्ग-बाह्य और आभ्यंतर परिग्रह के त्याग की भावना में वीतराग स्वरूप के
लक्ष्य के द्वारा अंतरंग परिणामों की जो शुद्धता होती है, वह सम्यक् व्युत्सर्ग तप है। 6. सम्यक् ध्यान-चित्त की चंचलता को रोककर, तत्त्व के चिंतन में लगना, जिस समय
सामायिक करते हैं, उस समय आध्यात्मिक चिंतन करना, बारह भावना भाकर चित्त को स्थिर करना और आत्मस्थ भावों में जितना हो उतना रमण करना, इसमें वीतराग स्वरूप
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॥4. सम्यक
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