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(1) अनशन (2) अवमौदर्य (3) वृत्तिपरिसंख्यान, (4) रसपरित्याग (5) विविक्तशय्यासन (6) कायक्लेश। ये छह बाह्य तप हैं।
विशेष- यह तप के वाह्य भेद सम्यग्दृष्टि के हैं, मिध्यादृष्टि के नहीं।
इनका संक्षिप्त वर्णन निम्न प्रकार है
1. सम्यक् अनशन - सम्यग्दृष्टि जीव के आहार के त्याग का भाव होने पर, विषय कषाय कम होते हैं जिससे, अन्तरंग में परिणामों की शुद्धि होती है, तब वह चारों प्रकार का आहार, अन्न, खाद्य, लेह और पेय का त्याग कर देता है। इसे सम्यक् अनशन तप कहते हैं।
2. सम्यक् अवमौदर्य - सम्यग्दृष्टि जीव के राग भाव दूर करने के लिए, जितनी भूख हो, उससे कम भोजन करने का भाव होता है। जब वह इस अन्तरंग परिणामों की शुद्धता सहित भूख से कम भोजन ग्रहण करता है तब उसे उसका सम्यक् अवमौदर्य तप कहते हैं।
3. सम्यक् रसपरित्याग - सम्यग्दृष्टि जीव के रसना इन्द्रिय सम्बन्धी राग का शमन करने के लिए, घी, दूध, दही, तेल, मीठा तथा नमक इन छह रसों में से यथाशक्ति त्याग करने का भाव बनता है, तब इस अन्तरंग परिणाम की शुद्धता सहित जो रस त्याग किया जाता है। वह सम्यक् रसपरित्याग तप कहलाता है।
4. सम्यक् वृत्तिपरिसंख्यान- सम्यग्दृष्टि जीव के संयम के प्रयोजन, निर्दोष आहार लेने के लिए जाते समय, भोजन की वृत्ति तोड़ने वाले नियम करना, अटपटी आखड़ी लेना, परिणामों की शुद्धता सहित जाना, वह सम्यग्दृष्टि का सम्यक्वृत्तिपरिसंख्यान तप कहलाता है।
5. सम्यक् विविक्तशय्यासन- सम्यग्दृष्टि जीव के स्वाध्याय ध्यान आदि की प्राप्ति के लिए एकान्त निर्दोष स्थान में प्रमादरहित सोने, बैठने की वृत्ति होने पर अन्तरंग परिणामों की जो शुद्धता होती है, उसे विविक्तशय्यासन तप कहते हैं।
6. सम्यक् कायक्लेश- सम्यग्दृष्टि जीव के शारीरिक आसक्ति घटाने के लिए यह नियम लेना कि आज सामायिक इस आसन से करेंगे और उसमें उपसर्ग आ गया तो भी कदापि चलायमान नहीं होंगे, इतने अन्तरंग शुद्ध परिणामों सहित, उस समय वाह्य कष्टों को सह जाना, सामायिक कायक्लेश तप है।
(ब) अन्तरङ्ग तप- जो तप वाह्य द्रव्यों की अपेक्षा नहीं करते, अन्तःकरण के व्यापार से होते हैं, उन्हें अन्तरङ्ग तप कहते हैं। दूसरे शब्दों में जिस तप में बाह्य द्रव्य की अपेक्षा नहीं रहती,
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