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जो समभावी इस लोक और परलोक के सुख की अपेक्षा न करके अनेक प्रकार का का क्लेश करता है, उसके तप धर्म होता है। दूसरे शब्दों में अपनी शक्ति को न छिपाकर, मोक्षमार्ग के अनुकूल शरीर को क्लेश देना यथाशक्ति तप है। वह व्यवहार तप कहलाता है।
सद्गृहस्थ के षट् आवश्यकों के पाँचवें आवश्यक तप के सन्दर्भ में आचार्य पद्मनंदि कहते हैं
पर्वस्वथ यथाशक्ति भुक्तित्यागादिकं तपः । वस्त्रपूतं पिबेत्तोयं रात्रिभो जनवर्जनम् ।। २५
(पद्मनंदिपंचविंशतिका अ. 6 )
श्रावक को पर्व के दिनों में (अष्टमी एवं चतुर्दशी आदि) अपनी शक्ति के अनुसार भोजन के परित्याग आदि रूप, जिसे अनशन कहते हैं, तपों को करना चाहिए। इसके साथ ही उन्हें रात्रि भोजन छोड़कर वस्त्र से छना हुआ जल पीना चाहिए। पद्मपुराण- अ. 14 में आचार्य रविषेण कहते हैं
नियमश्च तपश्चेति द्वयमेतन्न भिद्यते ।। २४२ ॥ तेन युक्तो जनः शक्या तपस्वीति निगद्यते । तत्रसर्व प्रयत्नेन मतिः कार्या सुमेधसा ॥२४३॥
नियम और तप ये दो पदार्थ अलग-अलग नहीं है। जो मनुष्य नियम से युक्त है वह शक्ति के अनुसार तपस्वी कहलाता है, इसलिए बुद्धिमान मनुष्य को सब प्रकार से नियम अथवा तप में प्रवृत रहना चाहिए।
तप के भेद
तप दो प्रकार का माना गया है
(अ) बहिरङ्ग तप, (ब) अन्तरङ्ग तप ।
उसे बहिरङ्ग
(अ) बहिरङ्ग तप-जो तप बाहर से अन्यों को दिखाई दे कि यह तपस्वी तप कहते हैं। जैसे- कहीं दो व्यक्ति रहते हों तब एक व्यक्ति अपने भोजन में मीठा, घी, दूध, दही आदि रसों को छोड़कर भोजन करता हो, किन्तु दिन भर गृहस्थी के कार्यों में, कषायों में उलझा रहा। दूसरे व्यक्ति ने यद्यपि भोजन में सभी रस लिए हों, किन्तु दिन भर आध्यात्मिक चिंतन मनन में व्यस्त रहा हो। तब रस छोड़ने वाला तपस्वी नहीं कहलायेगा ।
यह वाह्य तप छह प्रकार का होता है जैसा कि आचार्य उमास्वामी तत्त्वार्थ सूत्र में लिखते हैं किअनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंरव्यानरसपरित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेशाः वाह्यं तपाः ॥9.19
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