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जब पानी से भर जाती हैं तब वे स्वतः ही बरस जाती हैं, या उन्हें फिर बरसना ही पड़ता है, क्योंकि बदलियों का स्वभाव ही बरसना है। जो पानी का निमित्त पाकर स्वयं को परिवर्तित करने को तैयार हो जाते हैं। वे हरे भरे वृक्ष के रूप में लहरा भी जाते हैं तथा दूर-दूर तक अपनी शाखाओं को फैला देते हैं। जिस पर हरे-हरे पत्ते एवं फल भी लग जाते हैं। मिट्टी के कण भी बरसात का पानी पाकर हरी-हरी घास को अंकुरित कर चारों ओर अपनी हरियाली को बिखेर देते हैं और सुमन की सुवास स्वतः ही चारों ओर फैल जाती है, फैलाने की आवश्यकता नहीं पड़ती। फूलों का स्वभाव है अपनी सुवास को फैलाना, बस तपस्या का भी यही स्वभाव होता है। कहा गया है कि
नदी की शोभा रेत से नहीं, पानी से होती है। पेड़ की शोभा पत्तों से नहीं फलों से होती है।। पर्वत की शोभा पत्थरों से नहीं हरे-भरे वृक्षों से होती है। मनुष्य जन्म की शोभा विषय-भोगों से नहीं तप-संयम से होती है।।
तप का फल जो तप सम्यक्दर्शन सहित किया जाता है वह निश्चय ही मोक्ष को प्राप्त कराने वाला होता है। तप चारित्ररूप होने से मोक्षमार्ग बनता है, जिसपर चलकर तपस्वी मोक्ष को प्राप्त करता है। यह बात निम्न दृष्टान्त से स्पष्ट हो जाती है।
सेठ सुदर्शन का ध्यान तप चम्पापुरी नामक नगरी में एक बहुत प्रतापी एवं कामदेव के समान रूपवान, गुणवान सेठ सुदर्शन रहते थे। एक दिन युवा सेठ सुदर्शन अपने मित्रों के साथ घूमने के लिए निकलते हैं। वहाँ वे एक मनोरमा नामक कन्या को देख उसपर मोहित हो जाते हैं। जब उनके पिता श्रेष्ठी. वृषभदास जी को पता चलता है तो वे सुदर्शन का विवाह मनोरमा के साथ करवा देते हैं। कुछ समय बाद उनके सुकान्त नामका पुत्र उत्पन्न होता है।
सुदर्शन के माता-पिता अपना सारा गृहभार सुदर्शन को सौंपकर दीक्षित हो जाते हैं। सेठ सुदर्शन अपने धार्मिक षट् आवश्यकों को अच्छी तरह पालन करते थे और अष्टमी एवं चतुर्दशी को गृहत्याग कर प्रोषधोपवास करते थे। रात्रि में मुनि सदृश सर्वपरिग्रहों का त्याग कर एकान्त स्थान श्मशान में कायोत्सर्ग अवस्था में आत्मध्यान किया करते थे। वे सम्यग्दर्शन में दृढ़ थे।
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