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________________ जब संयम चुनौती देता है, तो कर्म घूमने लगते हैं। संयमी मानव के फिर सब, बार-बार चरण चूमने लगते हैं। विपदायें होती रुखसत, दुःख के बादल उड़ने लगते हैं। धर्मात्मा संग देव, किन्नर, चाँद-तारे भी चलने लगते हैं। असंयमी का जीवन नष्ट हो जाता है जिसके जीवन में संयम नहीं है उसका जीवन जीना व्यर्थ है। असंयमी का जीवन एक कटी पतंग के समान होता है जैसे कि निम्न दृष्टान्त में समझाया गया है संयम की डोर आसमान में एक पतंग उड़ रही थी। यह देख ऊपर आसमान में हवा पतंग का स्वागत करती है। कहती है-"अरी बहन अब तुम हमसे मिलकर रहो, जो तुम्हारी डोर पकड़े है उसका साथ तुम छोड़ दो, फिर तुम पूर्ण स्वतंत्र होकर हमारे साथ रहना।" पतंग कहती है-"हमारा उससे छूटना कैसे बन पायेगा?" हवा कहती है-"हम तुम्हारा साथ देंगे, तुम्हारी मदद करेंगे। बोलो तुम्हें हमारे साथ रहना स्वीकार है?" हाँ-हाँ स्वीकार है। पतंग ने उत्तर दिया। अब हवा बहुत तेज चलने लगती है, और पतंग की डोर डूट जाती है। पतंग स्वतंत्र होकर हवा के साथ किलोल करने लगती है। अब पतंग स्वच्छन्द हो जाती है, किसी प्रकार का कोई बन्धन नहीं रह जाता। जब तक पतंग डोर के आश्रय में थी तब तक तो वह सुरक्षित थी, किन्तु स्वच्छन्द हो जाने से असुरक्षित हो जाती है। अब हवा की तेज चाल से पतंग फटने लगती है, तब पतंग कहती है कि 'हवा बहन जरा धीरे-धीरे चलो, थोड़ी देर के लिए बन्द हो जाओ हमें इस तरह न सताओ।' हवा कुछ ध्यान नहीं देती, थोड़ी ही देर में ऊपर से बादल गरजने लगते हैं। पानी बरसने लगता है। पतंग भीग जाती है और नीचे गिरने लगती है। कीचड़ में गिरकर फंस जाती है और अन्ततः नष्ट हो जाती है। ___ इस प्रकार जिसका जीवन संयम रूपी डोर से नहीं बँधा है, उसका जीवन कटी पतंग, टूटी पतंग के समान स्वच्छन्द है। पंचेन्द्रियों के विषय और मन हवा के समान है जो इसको लुभाते हैं और यदि यह मानव इन विषयों के आकर्षण में आ जावे तो अन्ततः ये इसको संसार रूपी कीचड़ में फंसा देते हैं। इसलिए मन की चंचलता को रोकने के लिए संयम धारण करना अनिवार्य है। यदि मन नियन्त्रित हो जाये तो अन्य पाँच इन्द्रियाँ आसानी से नियंत्रित की जा सकती हैं। जो ॥ मानव अपने जीवन में थोड़े से कष्टों को सहकर संयम धारण कर लेता है वह अपने जीवन को सुरक्षित तथा सुखमय बना लेता है। संयम का जीवन में बहुत अधिक महत्त्व है। यह संयम जीवन 3964
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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