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होता हुआ समाधिमरण करता है। इसी को सल्लेखना व्रत कहते हैं, और इस प्रकार के मरण को सल्लेखना मरण भी कहते हैं। . सल्लेखना के भेव सल्लेखना दो प्रकार की होती है- 1. यम सल्लेखना; और 2. नियम सल्लेखना। 1. यम सल्लेखना-जब नेत्र ज्योति आदि मंद हो जाती है, हाथ की रेखाएँ दिखनी बन्द
हो जाये तब, संयम की रक्षा होना कठिन हो जाता है, तब जीवन भर के लिए चारों प्रकार के आहार का त्याग करना यम सल्लेखना कहलाता है। उत्कृष्ट यम सल्लेखना बारह वर्ष की होती है। अन्तर्मुहूर्त प्रमाण अवधि वाली जघन्य यम सल्लेखना होती है
और जघन्य से लेकर उत्कृष्ट के पहुंचने तक मध्यम के अनेक भेदरुप मध्यम यम
सल्लेखना कहलाती है। 2. नियम सल्लेखना-जब कोई उपसर्ग आदि आ जाता है, तब भी चारों प्रकार के
आहार का त्याग, उपसर्गादि के निवारण तक किया जाता है। इस प्रकार की सल्लेखना को नियम सल्लेखना कहते हैं। वस्तुतः काय और कषाय का कृश करना ही वास्तविक सल्लेखना है। जितने भी व्रत लिए जाते हैं श्रावक अवस्था में उनका निरतिचार पालन कर व्रतों सहित शान्तिपूर्वक काय और कषाय को कृश करते हुए रागद्वेष नहीं होवे, कदाचित वेदना बढ जावे तब भी शान्ति बनाये रखें, धीरता के साथ समाधिमरण हो जावे, यही उद्देश्य अन्त समय में साधक श्रावक का होता है। इस प्रकार सल्लेखना के दो भेद काय और कषाय की अपेक्षा से होते हैं1. काय सल्लेखना-इसमें बारह वर्ष तक रस परित्याग, पूर्वक उसको घटाते-घटाते,
अन्त समय में सब कुछ त्याग अर्थात् चारों प्रकार का आहार का त्याग हो जाता
है। इसमें काय को कृश किया जाता है। 2. कषाय सल्लेखना-इसमें क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कषायों एवं राग-द्वेष को
घटाते-घटाते पूर्ण वीतराग भाव प्रकट किया जाता है, तब इसे कषाय सल्लेखना
कहते हैं। जीवन में संयम का महत्त्व-जीवन में संयम धारण करने का बहुत महत्त्व है। सबसे पहले, संयमी को जो लाभ होता है वह यह है कि उसके विकल्पों का दमन होता है। उसे भूमिकानुसार साक्षात् शान्ति का अनुभव होता है। जिनके जीवन में संयम है वे प्रायः अपने जीवन में सफल हो जाते हैं। कहा भी है कि
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