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________________ 9. परिग्रहत्याग प्रतिमा-जो आरम्भ त्याग प्रतिमाधारी बाह्य दश प्रकार के परिग्रहों से सर्वथा ममत्व छोड़ निर्मोही होकर मायाचार रहित, परिग्रह की आकांक्षा का त्याग करता है, वह परिग्रहत्याग प्रतिमाधारी श्रावक कहलाता है। इस प्रतिमाधारी का जीवन वैराग्यमय. संतोषी एवं साम्यभावधारी होता है। 10. अनमतित्याग प्रतिमा-जो परिग्रहत्याग प्रतिमाधारी, गृह आरम्भ आदि कार्यों में, परिग्रह में विवाह आदि लौकिक कार्यों में और धनसंचय. व्यापारादि कार्यों में अनमति सहमति भी नहीं देता, माध्यस्थ भाव धारण करता है, वह अनुमतित्याग प्रतिमाधारी श्रावक कहलाता है। 11. उद्दिष्टत्याग प्रतिमा-जो घर छोड़कर मुनि के पास जाकर, गुरु के सान्निध्य में ग्यारहवीं प्रतिमा के व्रत लेकर तपश्चरण करता हैं और संघ में रहते हुए भिक्षावृत्ति से आहार लेते हैं, वे श्रावक उद्दिष्टत्याग प्रतिमाधारी श्रावक कहलाते हैं। ये दो प्रकार के होते हैं-(1) जो कोपीन (लँगोट) और खण्डवस्त्र धारण करते हैं तथा कैंची या उस्तरे से अपने केशों को कटवाते हैं, वे क्षुल्लक कहलाते हैं, (2) जो केवल कोपीन (लँगोट) मात्र ही रखते हैं, नियम से केशलोंच करते हैं, वे ऐलक कहलाते हैं। क्षुल्लक कटोरे में आहार लेते हैं और ऐलक पाणिपात्र में आहार ग्रहण करते हैं, दोनों ही बैठकर आहार लेते हैं। ये दोनों पिच्छी और कमण्डलु अपने पास रखते हैं। पिच्छीधारी साधु वाहन का प्रयोग नहीं करते हैं। नोट- एक से छळ प्रतिमाधारी श्रावक-जघन्यव्रती श्रावक कहलाता है। सात से नौ प्रतिमाधारी श्रावक-मध्यम व्रती श्रावक कहलाता है। अपने व्रतों में अतिचार लगाने वाला नैष्टिक श्रावक, पाक्षिक श्रावक हो जाता है, इसलिए व्रतों को निरतिचार पालना चाहिए। प्रतिमाओं को क्रम से ही पाला जाता है। (3) साधक श्रावक- यह श्रावक का तीसरा भेद है। जो जीवन का अन्त आने पर शरीर, आहार और मन-वचन-काय के व्यापार को त्याग कर ध्यानशुद्धि के द्वारा आनन्दपूर्वक आत्मा की शुद्धि की साधना करता है, वह साधक श्रावक कहलाता है। दूसरे शब्दों में जो मरण की साधना करता है, वह साधक श्रावक है। जब जीवन का अन्त उपस्थित हो तब शरीर से ममत्व को त्यागकर चारों प्रकार के आहार को त्यागकर और मन-वचन-काय के व्यापार को रोक कर ध्यानशद्धि के द्वारा आत्मशोधन करने वाले को साधक कहते हैं। अन्त समय में वह अपने उपयोग को सब ओर से हटाकर अपनी आत्मा में लगा लेता है। आर्त्त-रौद्र ध्यान को छोड़कर स्वात्मा में स्थिर होता है और निर्विकल्प - 394 -
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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