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________________ विशेष-पाक्षिक श्रावक अष्टमूलगुण अतिचार सहित पालता है, अतिचार रहित पालन करने पर वह प्रथम दर्शनप्रतिमाधारी हो जाता है। इस प्रकार पाक्षिक श्रावक अपनी दिनचर्या को व्यवस्थित कर लेता है। संसार के समस्त प्राणियों में मैत्री भाव रखना, वे सब सुखी रहें, ऐसा चिन्तन करना, गुणवानों को देखकर प्रमोद हर्ष प्रकट करना, दु:खी प्राणियों को देखकर दया-भाव रखना, धर्म से विपरीत चलने वालों में माध्यस्थ भाव रखना, रागद्वेष न करना, उक्त चारों भावनाओं से चारित्र संयम धर्म की वृद्धि करने को एवं दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय रूप त्रस जीवों की संकल्पी हिंसा के त्याग करने को तथा धर्म आदि के निमित्त जीव हिंसा न करने को पक्ष कहते हैं। अर्थात् उक्त प्रकार के संयम धर्म के पालने की प्रवृत्ति को पक्ष कहते हैं। जो सम्यग्दृष्टि हो अर्थात् देव-शास्त्र और गुरु की यथार्थ श्रद्धा करने वाला हो तथा अतिचार सहित आठमूलगुण एवं पाँच अणुव्रतों का जो स्थूल रूप से पालन करने वाला हो और देव-शास्त्र गुरु की पूजन का अनुरागी हो तथा आगे प्रतिमारूप संयम धर्म पालने का इच्छुक हो, वह पाक्षिक श्रावक कहलाता है। पाक्षिक श्रावक का निम्न 22 अभक्ष्यों का भी त्याग रहता है। ये निम्न हैं (1) ओला; (2) दही बड़ा (कच्चे पक्के दूध से जमाये गये दही का बड़ा) (3) रात्रि भोजन; (4) बहुबीजा अनाज; (5) बैंगन; (6) अचार-मुरब्बा (चौबीस घण्टे के बाद का); (7) बड़ फल; (8) पीपल फल; (9) पाकर (पिलखन); (10) कठूमर (अंजीर) फल; (11) गूलर फल; (12) अजान फल (जिसको हम पहचानते नहीं ऐसे कोई फल पत्ते आदि); (13) कन्द (मूली, गाजर आदि जमीन के अन्दर लगने वाले); (14) मिट्टी; (15) विष (संखिया, धतूरा आदि); (16) आमिष (मांस); (17) शहद; (18) मक्खन; (19) मदिरा; (20) अतितुच्छ फल (जिसमें बीज नहीं पड़े हों ऐसे बिलकुल कच्चे छोटे-छोटे फल); (21) बर्फ; और (22) चलित रस (जिनका स्वाद बिगड़ जाये ऐसे फटे हुए दूध आदि)। ये सब अभक्ष्य हैं। बाजार की बनी हुई चीजों में मर्यादा आदि का विवेक न रहने से तथा अनछने जल आदि से बनाई होने से सब वस्तुएँ अभक्ष्य हैं। इसलिए इन सबका त्याग करना ही उचित है। 2 नैष्ठिक श्रावक यह श्रावक का दूसरा भेद है। जो पाक्षिक श्रावक के आचार को पालता हुआ सम्यग्दर्शन को 25 दोषों से रहित निर्मल बनाकर अतिचार रहित आठमूल गुण पालने वाला जो संसार, शरीर, भोगों से विरक्त रहता है, जिसकी एकमात्र अन्तर्दृष्टि अरहंत आदि पाँच परमेष्ठियों के चरणों में ही रहती है, वह नैष्ठिक श्रावक कहलाता है। इस श्रावक के ग्यारह भेद या - 391
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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