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________________ 3. श्रेणी होती हैं, जिनपर यह क्रम से धीरे-धीरे चढ़कर अपनी आध्यात्मिक उन्नति करता हुआ अपने जीवन के अन्तिम लक्ष्य तक पहुँच जाता है। इन ग्यारह श्रेणियों को श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएँ कहते हैं। इनका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है 1. दर्शन प्रतिमा- जो श्रावक 25 दोषों से रहित सम्यग्दर्शन को निर्मल बना लेता है, संसार, शरीर, भोगों से विरक्त रहता है, पंच परमेष्ठी के चरणों का ध्यान करता है और अष्टमूलगुणों को निरतिचार पालता है, वह श्रावक दर्शन प्रतिमाधारी श्रावक कहलाता है। यह सब कार्य कृत-कारित अनुमोदना पूर्वक करता है। 2. व्रत प्रतिमा- जो दर्शन प्रतिमाधारी, माया, मिथ्यात्व और निदान इन तीन शल्यों से रहित होता हुआ, अतिचार रहित पाँच अणुव्रतों को और सात शील व्रतों को (तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों को) धारण करता है, वह व्रत प्रतिमाधारी श्रावक कहलाता है। पाँच अणुव्रत - हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह - इन पाँचों पापों का एक देश . त्याग करना पाँच अणुव्रत हैं। इनका अतिचार रहित पालन किया जाता है। तीन गुणव्रत- दिग्व्रत, देशव्रत, अनर्थदण्डविरति ये तीन गुणव्रत हैं, जो पाँच अणुव्रतों को दृढ़ करते हैं। दिग्व्रत अर्थात् दशों दिशाओं में आने-जाने का परिमाण कर लेना क्षेत्र सीमित कर लेना कि मर्यादित श्रेत्र से ही सम्बन्ध रखूँगा-दिग्व्रत कहलाता है। देशव्रत - दिग्व्रत की सीमा के अन्दर निश्चित किये गये स्थानों में आने-जाने में और भी कमी कर लेना देशव्रत है। दिग्व्रत में तो जीवनपर्यन्त के लिए मर्यादा की जाती है किन्तु देशव्रत में कुछ समय के लिए मर्यादा की जाती है, यही दोनों में अन्तर है। अनर्थदण्ड विरति व्रत बिना प्रयोजन दिग्व्रत की सीमा के अन्दर मन-वचन-काय से जो पाप होते हैं उन्हें नहीं करना अनर्थदण्डविरतिव्रत है। सामायिक प्रोषधोपवास, भोगोपभोग परिमाण और अतिथि संविभाग- ये चार शिक्षा व्रत कहलाते हैं। ये मुनि अवस्था के लिए अभ्यास मात्र होते हैं। ये बारह व्रत पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक के निरतिचार एवं निःशल्य रूप होते हैं। ये श्रावक के 12 व्रत भी कहलाते हैं। सामायिक प्रतिमा - व्रत प्रतिमा का अभ्यासी तीनों सन्ध्याओं में सामायिक करता है और कष्ट आ जाने पर भी अपने ध्यान से विचलित नहीं होता, मन-वचन-काय की एकाग्रता को स्थिर रखता है, उसे सामायिक प्रतिमाधारी श्रावक कहते हैं। यह श्रावक कम से कम दो घड़ी (48 मिनिट) सर्वसावद्य योग का त्यागकर समता धारण करता हुआ अपनी आत्मा 392
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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