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________________ (अ) इन्द्रिय संयम, (ब) प्राणी संयम। पहले इन्द्रिय संयम होता है, उसके बाद प्राणी संयम। (अ) इन्द्रिय संयम-पाँचों इन्द्रियों और मन की प्रवृत्ति को रोकना इन्द्रिय संयम कहलाता है। इसका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है1. स्पर्शन इन्द्रिय संयम-शरीर सुन्दर नहीं बनाना। तेल फुलेल, सिंगार आदि के द्वारा प्रतिक्षण शरीर को पोषण करने में नहीं रहना। यदि गर्मी में कूलर, पंखा, ए.सी. आदि लगाया गया तो स्पर्शन इन्द्रिय का संयम नहीं होगा। सर्दी में हीटर अथवा अँगीठी का प्रयोग भी संयम के अन्तर्गत नहीं आता। यदि शरीर से मोह होगा तो स्पर्शन इन्द्रिय का संयम नहीं होगा। अतः गृहस्थ को ये कार्य नियन्त्रित करना चाहिए। 2. रसना इन्द्रिय संयम-जिह्वा पर नियन्त्रण करना, रसों का त्याग करना (दूध, घी, दही, तेल, मीठा, नमक ये छळ रस), रसना इन्द्रिय संयम हैं। नमक का त्याग किया और जवाखार का सेवन किया अथवा यह कहा कि कल नमक का त्याग है हलवा बना लेना अर्थात् एक वस्तु की इच्छा घटाई और दूसरी वस्तु लेने की इच्छा बढ़ाई तब रसना इन्द्रिय संयम नहीं । होगा। अत: गृहस्थों को जिह्वा पर नियन्त्रण करना चाहिए। 3. घ्राण इन्द्रिय संयम-सुगन्ध और दुर्गन्ध में राग-द्वेष नहीं करना, मध्यस्थ रहना ही घ्राण इन्द्रिय संयम है। यदि सुगन्धित वस्तु में प्रसन्नता और दुर्गन्धित वस्तु में द्वेष होता है, वहां घ्राण इन्द्रिय संयम नहीं होगा। 4. चक्षु इन्द्रिय संयम-सिनेमा देखना, टी.वी. देखना, स्त्री-पुरुष के सुन्दर रूप को देखकर मोहित होना, कोठी-बँगले आदि की सुन्दरता देखकर उनमें राग रखना चक्षु इन्द्रिय संयम नहीं कहलायेगा। गृहस्थों को इन कार्यों से बचना चाहिए तभी चक्षु इन्द्रिय संयम होगा। 5. कर्ण इन्द्रिय संयम-गाना सुनना, मधुर-प्रिय शब्दों से राग और कटु शब्दों से द्वेष करना, कर्ण इन्द्रिय संयम नहीं कहलाता है। दोनों स्थितियों में एक समान रहना, उदार रहना कर्ण इन्द्रिय संयम कहलाता है। ज्ञान के शब्दों को सुनकर उसमें ही रत रहना, भगवान की वाणी सनकर, अपने आत्मा में उतारना ही कर्ण इन्द्रिय संयम है। गहस्थ को इसके विपरीत नहीं चलना चाहिए। 6. मनेन्द्रिय संयम-मन सब इन्द्रियों के ऊपर सवार रहता है। सबसे कठिन मनेन्द्रिय संयम होता है, क्योंकि यह बहुत ही चंचल होता है, इसलिए इसे नियन्त्रिन करना कुछ कठिन होता है। यदि मन संयम, अर्थात् मन को चारों ओर भटकने से रोकना, साध लिया जाये % 3 D % 3D 385 3- 385 D
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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