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(दोइन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय, और पंचइन्द्रिय जीव) छळ काय के जीवों को बचाकर कार्य करना संयम के अन्तर्गत है। दु:ख इस बात का है कि गृहस्थ पंचेन्द्रिय के विषयों में फंसा रहता है। भ्रमित रहता है। चक्षु इन्द्रिय अपना भोजन तलाशती है, कभी सुन्दर रूप में तो कभी विकृत रूप में। कर्ण इन्द्रिय मधुर आवाज सुनना चाहती है, कठोर, कर्कश ध्वनि इसे पसन्द नहीं। कभी घ्राण इन्द्रिय कहती है कि यह दुर्गन्ध है और यह सुगन्ध, कभी रसना इन्द्रिय को मीठे-मीठे पकवान चाहिए। कसैला भोजन इसे पसन्द नहीं। पेट मात्र इतना कहता है कि भूख लगी है, कुछ भी दे दो मुझे पसन्द है, किन्तु जिह्वा इसे नाच नचाती है। स्पर्शन इन्द्रिय भी इस गृहस्थ को अपने चंगुल में फंसाती है। कहती है मुझे मृदु स्पर्श चाहिए, कठोर नहीं। कभी कहती है मुझे कूलर, ए.सी. में बैठाओ, तो कभी हीटर जलाओ। इस प्रकार पाँच इन्द्रियों के जाल में फंसकर यह गृहस्थ मन इन्द्रिय रूपी घोड़े पर बैठकर तीनों लोक में घूम आता है। आप कल्पना कीजिए, ये इन्द्रियाँ आप से अलग-अलग अपनी-अपनी पसन्द की वस्तुयें माँगती है। एक अकेला आत्मा पाँच-छह की माँग कैसे पूरा करे? अनादि काल से लेकर आज तक इनकी मांगों की पूर्ति करते-करते, इनकी मांगे पूरी नहीं हो पायी हैं। इनकी माँगों के जाल से निकलने के लिए ही संयम धारण करना होगा। पूर्ण संयम तो मुनिराज धारण करते हैं, व्रत, समिति, गुप्ति आदि के रूप में, किन्तु गृहस्थ भी आंशिक संयम धारणकर पंचेन्द्रिय के जाल को तोड़ने में पूर्ण सक्षम हैं।
संयम का शाब्दिक अर्थ एवं परिभाषा संयम दो शब्दों से मिलकर बना है-सम्+यम्। सम् का अर्थ होता है सम्यक् प्रकार से और यम का अर्थ होता है शमन करना, दमन करना, नियंत्रण करना, दबाना आदि अर्थात् संयम का अर्थ हुआ सम्यक् प्रकार से दमन करना उन विकल्पों का जो कि विषय भोगों के दृढ संस्कारवश प्रतिक्षण नया-नया रूप धारण करके हमारे अन्त:करण में आते रहते हैं। वस्तुतः संयम का अर्थ विषयों का संयमन-उपशमन करना होता है।
"संयम्यन्ते इन्द्रियाणि मनश्च येनासौ संयमः।" अर्थात्-जिस शक्ति के द्वारा पाँचों इन्द्रियों एवं छठे मन वृत्ति को संयमित किया जावे उसको संयम कहते हैं।
भाव संयम से रहित द्रव्य संयम. संयम नहीं कहलाता है। संयम के भेद-संयम दो प्रकार का होता है।
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