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इस प्रकार जिनवाणी की विराधना करना अपनी माँ की विराधना करने के समान है।
एक गृहस्थ को जिनवाणी के अभ्यास के प्रति कैसी भावना रखना चाहिए, इस बात को स्पष्ट करते हुए पं. बनारसीदास जी कहते हैं कि
आगम-अभ्यास होहु सेवा सर्वज्ञ! तेरी, संगति सदीव मिलौ साधरमी जन की। सन्तन की गुन की बखान यह बान परौ, मेटो टेव देव! पर-औ गुन-कथन की। सब ही सौं ऐन सुखदैन मुख वैन भाखौं, भावना त्रिकाल राखौं आतमीक धन की। जौलौं कर्म काट खोलौं मोक्ष के कपाट तौलौं.
ये ही बात हूजौ प्रभु! पूजौ आस मन की॥ हे सर्वज्ञदेव! मेरी अभिलाषा यह है कि मैं जब तक कर्मों का नाश करके मोक्ष का दरवाजा नहीं खोल लेता है, तब तक मुझे सदा शास्त्रों का अभ्यास रहे, आपकी सेवा का अवसर प्राप्त रहे, साधर्मीजनों की संगति मिली रहे, सज्जनों के गुणों का बखान करना ही मेरा स्वभाव हो जावे, दूसरों के अवगुण कहने की आदत से मैं दूर रहूँ, सभी से उचित और सुखकारी वचन बोलूँ और हमेशा आत्मिक सुखरूप शाश्वत धन की ही भावना भाऊँ। हे प्रभो! मेरे मन की यह आशा पूरी होवे।
जो जीव, आगम का, शास्त्र का आदर करता है, उसको अपने जीवन में सर्वश्रेष्ठ स्थान देता है, उसका फल तथा परिणाम क्या होता है, यह निम्न दृष्टान्त से स्पष्ट हो जाता है
मतिवरण से कुन्दकुन्दाचार्य भरतखण्ड के दक्षिण देश में 'पिड़थनाडू' नाम का एक प्रदेश है। इस प्रदेश के अन्तर्गत 'कुरूमरई' नामक ग्राम में 'करमण्डु' नाम का एक धनिक वैश्य रहता था। उसकी पत्नी का नाम श्रीमती था। उसके यहाँ एक ग्वाला रहता था जो उसकी भैंस चराया करता था। उस ग्वाले का नाम मतिवरण था। एक दिन जब वह अपने पशुओं को एक जंगल में ले जा रहा था, तो उसने बड़े आश्चर्य से देखा कि सारा जंगल आग से जल कर राख होता जा रहा है, किन्तु मध्य भाग के कुछ वृक्ष हरे-भरे थे। उसे उसका कारण जानने की बड़ी उत्सुकता होती है। वह वहाँ पर जाता है तो उसे ज्ञात होता है कि यह स्थान किसी मनि का है, क्योंकि वहाँ एक पेटी में उसे
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