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सिंह की दहाड़ एक शूकर सुन लेता है। उस दहाड़ में सिंह का क्या उद्देश्य था यह भी वह समझ जाता है। किस ओर जायेगा और क्या करेगा, इन सब बातों को शूकर तुरन्त समझ जाता है। शूकर अब शीघ्र ही सिंह के सामने आ धमकता है, और कहता है-"तुम उधर नहीं जा सकते।" शूकर ने दृढ़ता के साथ कहा। "मैं जाऊँगा", सिंह दहाड़ते हुए कहता है। “कैसे जाओगे? मैं तो बीच में हूँ, पहले मुझे अलग करो, फिर बाद में ही तुम गुफा में जा सकोगे।" शेर गुस्से से कहता है-"क्या कहता है तू? जरा ध्यान से सुन, मैं वनराज हूँ।" "हाँ! तुम वनराज हो, मैं भी वन में रहता हूँ।" शूकर ने उत्तर दिया।
आज राजा और प्रजा की बात है। राजा यदि अन्याय पर उतारू हो जाता है, तो प्रजा उसे कभी नहीं छोड़ेगी। पुनः शूकर कहता है कि-"मैं तुम्हारे आधीन रहने वाला प्राणी जरूरी हूँ, लेकिन मेरा प्रण है कि अन्याय करने वाले को और साधु पर हमला करने वाले को नहीं छोडूंगा, चाहे मेरे प्राण भले ही चले जाएँ।" "छोड़ दे रास्ता'। शेर दंभपूर्वक कहता है। 'नहीं छोडूंगा, कदापि नहीं छोडूंगा'। शूकर अपनी बात पर अड़ा रहता है।
अब दोनों में घमासान द्वन्द आरम्भ हो जाता है। जंगली शूकर अधिक बलशाली होता है। अतः एक-दूसरे को ऊपर-नीचे, उलट-पुलट करने लगते हैं। कस्मकस्सा, गुथ्थम-गुत्था होते-होते दोनों का प्राणान्त हो जाता है।
यहाँ विचार करने की बात यह है कि दोनों तिर्यंचों की गति क्या हुयी, दौलतराम जी कहते हैं कि
अति संक्लेश भावते मरयो घोर शुभ्र सागर में परयो। अर्थात् जो जीव संक्लेश अर्थात् हिंसा के परिणाम से मरता है वह सीधे नरक में जाता है।
लड़ाई तो दोनों तिर्यंचों ने आपस में लड़ी, लड़ते-लड़ते दोनों मर भी गये। दोनों को रौद्र ध्यान था, दोनों को कृष्ण लेश्या भी थी। इसलिए नियम से दोनों को नरक में जाना चाहिए। परन्तु ऐसा नहीं हुआ। उनमें शूकर स्वर्ग गया और सिंह नरक में गया। शूकर का अध:पतन इसलिए नहीं हुआ क्योंकि शूकर का परिणाम शुभ था और सिंह नरक में इसलिए गया क्योंकि उसके परिणाम अशुभ थे। सिंह का भाव मुनिराज के ऊपर प्रहार करने का था और उस प्रहार को रोकने के लिए शूकर ने हमला बोला था। वह मुनिराज को बचाना चाहता था। अतः वह हमला करने वाला शूकर स्वर्ग चला जाता है। इस दृष्टान्त से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि परिणामों के द्वारा ही उन्नति या अवनति हुआ करती है। शूकर ने ऐसा क्या किया जो उसे स्वर्ग की प्राप्ति हो गयी। शूकर ने वसतिका दान दिया था। वसतिका दान का अर्थ होता है जहाँ पर धर्म ध्यान किया जावे, उस क्षेत्र की रक्षा करना। धर्मध्यान करना या धर्म ध्यान करने वालों की सुरक्षा करना दोनों एक ही बात है।
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