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________________ स्थिति यह बनती है कि सन्त निवास छोटा पड़ने लगता है। धर्म प्रेमी जन दिन-प्रतिदिन बढ़ते जाते हैं। इस प्रकार उमड़ते इस जनसमूह को देखकर बाबा का मन बल्लियों उछलने लगता है। एक दिन जब धर्म सभा अच्छी तरह जमी थी तब लक्ष्मी एक बूढ़ी भिखारिन का वेश बनाकर सेठ के द्वार पर आती है। द्वार पर खड़ी होकर कहती है- "पानी पिलाओ-पानी पिलाओ, प्यास लगी है। "1 सेठानी ने यह दो चार बार सुनकर अनसुना कर दिया, पर जब वह बराबर चिल्लाती रही तब उसकी पुत्रवधु पूछती है कि माता जी क्या बात है? माता जी कहती हैं कि बेटी बाहर कोई पानी माँग रहा जाओ उसे पानी पिला दो। बहु भी सरस प्रसंग को छोड़ना नहीं चाहती थी, किन्तु सास का आदेश था अतः उठना ही पड़ा। बहु जल्दी से उठी और आनन-फानन में पानी का लोटा ले घर के बाहर आ जाती है। जैसे ही वह उसे पानी पिलाने लगती है, वह भिखारिन के रूप में लक्ष्मी अपनी झोली में से एक रत्न जड़ित सोने का अनुपम कटोरा निकालती है, और उसमें पानी डलवा कर पीने लगती है। जैसे ही वह पानी मुँह में डालती है, तो यह कहते हुए कटोरे को फेंक देती है कि "पानी गर्म है। थोड़ा ठण्डा पानी पिलाओ।' पुत्रवधु भिखारिन का कटोरा देखकर हैरान हो जाती है और अन्दर ठण्डा पानी लेने चली जाती है। भिखारिन पुनः अपनी झोली से एक और रत्न जड़ित कटोरा निकालती है और उसमें जल डलवाकर थोड़ा सा पानी पीती है। फिर कहती है- "ठण्डा तो है, परन्तु खारा है।" यह कहकर पानी गिरा देती है, और कटोरे को वहीं फेंक देती है। इस प्रकार वह चार-पाँच कटोरे यूँ ही फैंक देती है। ऐसा दृश्य देखकर पुत्रवधु की बुद्धि चकरा जाती दौड़ी-दौड़ी अन्दर जाती है, सासू को सब बात बताती है। सासू आकर जब देखती है और समझ जाती है कि यह लक्ष्मी ही है, कोई भिखारिन नहीं। सेठानी आगे आती है और भिखारिन के पैर पकड़कर कहती है कि-" आप ये कटोरे छोड़कर कहाँ जा रही हैं? वह भिखारिन कहती है कि - "मेरा तो नियम कुछ ऐसा ही है, मैं जहाँ भोजन करती हूँ, उन रत्न जड़ित थालों को व कटोरों को वहीं फैंक देती हूँ। उसमें पुनः भोजन व पानी लेना मेरे धर्म के विपरीत है। " अब सेठ-सेठानी - पुत्र-पुत्रवधु सब मिलकर यहीं रहने के लिए आग्रह करने लगते हैं। बहुत प्रार्थना करने पर वह भिखारिन कहती है कि जिस घर में साधु ठहरा हुआ हो, उस घर में मैं कैसे रह सकती हूँ?" लक्ष्मी की साक्षात्मूर्ति को ठुकराकर लोग स्वर्ग-नरक की चरचा सुनने के लिए भला बाबा को कैसे अपने घर रखे? यह कब संभव हो सकता है? अब जल्दी से जल्दी बाबा को घर से निकाला जाता है। संन्यासी 'जाता हूँ, जाता हूँ' कहता हुआ जाने लगता है। वह कहता है-'मैंने पहले ही कहा था, मैं चार महीने यहीं रहूँगा। तुम अपने वादे से मुकर रहे हो।' पर 368
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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