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________________ 5. नमस्कार-सभी उपस्थित श्रावक एवं श्राविकाएं मुनिराज से निम्न प्रकार कहें "नमोऽस्तु" महाराज जी, भोजन शाला में प्रवेश कीजिए। शुद्धि बोलकर आर्यिका से यथायोग्य वंदामि माता जी इत्यादि कहें। नोट-मुनिराज की पाँच भक्तियाँ चौके से बाहर होती हैं। चौके में प्रवेश करने के पश्चात् निम्न चार भक्तियाँ बोले6. मन शुद्धिः 7. वचन शुद्धिः 8. काय शुद्धिः 9. आहार-जल शुद्ध है। मुद्रिका छोड़, अँजुली बाँध आहार ग्रहण कीजिए। (ऐसा बोलना चाहिए।) इस प्रकार नवधा भक्ति करने के बाद चौके में बनाया गया आहार एक-दो थालियों में, कटोरियों-कटोरों में रखकर अतिथि को दिखावे, जिस वस्तु को अतिथि मना करें, हटाना चाहें, उस वस्तु को हटा दें। मन-वचन-काय शुद्धि 1. मनशुद्धि-अतिथि के प्रति मन में आदरभाव के साथ भक्तिभाव रखना व मन को आर्त-रौद्र कलुषता से बचाना तथा दान देते हुए मन में अहंकार व अन्य दाताओं से ईर्ष्या भाव नहीं रखते हुए निर्मल शुद्ध परिणाम रखना ही मन शुद्धि है। वचनशद्धि-अतिथि के प्रति आपके मख से अत्यन्त मीठे तथा भक्तिपर्ण शब्द निकले। आपकी भाषा से प्रेम झलकता हो, झंझलाहट या उतावली के शब्द, जैसे-जल्दी कर, जल्दी परोस, पानी ला इत्यादि मुख से नहीं निकलने चाहिए। यही वचन शुद्धि का व्यवहार चौके में उपस्थित सभी सज्जनों के प्रति रखना चाहिए। 3. कायशुद्धि-कायशुद्धि में निम्न चीजें आती हैं1. बाहरी वस्त्रों की स्वच्छता व शुद्धता के साथ-साथ भीतर के वस्त्र भी शुद्ध होने चाहिए। 2. शरीर में फोड़ा-फुन्सी, घाव आदि से मल स्रवित न हो रहा हो। 3. शरीर में पसीना व किसी तरह की गंध न आ रही हो। अच्छी तरह से शरीर की शद्धि करना काय शुद्धि है। 365 -
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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