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________________ 2. फल बादाम - लौंग-इलायची आदि संजोकर रखने चाहिए। हाथ में सचित्त फल कभी न रखें। 2. पड़गाहन के लिए खड़े हुए आहार दाता के वस्त्र शुद्ध एवं स्वच्छ हों। ध्यान रखें कि वस्त्र कहीं से भी फटे न हों। एकदम भड़कीले भी न हों तथा वस्त्र संभालकर पहने, जिससे वे जमीन पर न लगें। 3. पड़गाहन के लिए श्रावक-श्राविका हरी घास आदि पर खड़े न हों। वहाँ जीवों की विराधना होती है। 4. पड़गाहन के समय आचार्य आदि मुनि साधु को आता हुआ देखकर अनेक बार स्पष्ट बोलें कि - - हे स्वामी ! नमोस्तु, नमोस्तु, नमोस्तु | अर्यिकाओं के लिए हे माता जी! वंदामि, वंदामि, वंदामि। ऐलक, क्षुल्लक एवं क्षुल्लिकाओं के लिए हे स्वामी ! इच्छामि इच्छामि इच्छामि । - अत्र, अत्र, अत्र (अत्रो = यहाँ) - तिष्ठ तिष्ठ तिष्ठ (तिष्ठ=ठहरो ) " - आहार-जल शुद्ध है। यदि साधु आपके पास रुक जाये तो तुरन्त बोलें कि मन शुद्धि, वचन शुद्धि, काय शुद्धि, आहार- जल शुद्ध है। गृह प्रवेश कीजिए। किसी-किसी संघ में तीन-प्रदिक्षणा करने का नियम नहीं होता है, परन्तु जिस संघ का जैसा नियम हो तदनुसार पड़गाहन करना चाहिए। पात्र के हिसाब से विधि / भक्ति अपनाते हुए, आगे-आगे स्वयं जाते हुए, किन्तु पात्र को पीठ दिखाये बिना विवेक के साथ जीव रक्षा करते हुए स्वयं पैर ऐसी जगह धोयें कि कहीं चींटी आदि जीवों की विराधना न हो। यह ध्यान रखे कि पानी कहीं नाली इत्यादि में नहीं जाये। क्योंकि वहाँ जीवों की विराधना होती है। उच्चासन- गृह में ले जाने के पश्चात् साधु को चौके से बाहर लगाये गये उच्चासन पर बैठाने के लिए ऐसा कहें कि - " हे स्वामी ! उच्चासन ग्रहण कीजिए। " 3. पादप्रक्षालन- जो पड़गाह कर लाया है वह दातार प्रासुक जल से मुनिराज के घुटनों पर्यंत पादप्रक्षालन करे। 363
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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