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इस लोक में जब अरहंत भगवान की अर्चना-पूजा के भाव से प्रसन्न चित्त, मेंढक क्षणमात्र में मरकर स्वर्ग में गुणों से समृद्ध, सुखनिधि से संयुक्त, देव हो जाता है, तब आपके चरणों के सम्यक्दृष्टि भक्त मोक्ष प्राप्त करें तो क्या आश्चर्य है, अतः सच्चे भक्तों को मुक्ति प्रदान करने वाले हे वीर प्रभु! मेरे नयनपथगामी बन जाओ। ____ यहाँ पर पूजन का तिर्यंचों को भी निषेध नहीं है। अनेक तिर्यंच जिनेन्द्र भगवान की भक्ति-स्तुति और पूजन करने से स्वर्ग को प्राप्त हुए हैं। पूजन के फलप्राप्ति के विषय में एक मेढ़क की कथा सर्वत्र जैनशास्त्रों में प्रसिद्ध है।
मेंढक की भक्ति विपुलाचल पर्वत पर अन्तिम तीर्थङ्कर श्री महावीर स्वामी का समवशरण आया हुआ था। उसके समाचार से हर्षित होकर राजा श्रेणिक आनन्द भेरी बजाते हुए परिजन और पुरजन सहित श्रीवीरजिनेन्द्र की पूजा और वन्दना को चलते हैं। उसी समय एक मेढक भी जो कि नागदत्त श्रेष्ठी की बावड़ी में रहता था और जिसको अपने पूर्वजन्म की स्त्री भवदत्ता को देखकर जाति स्मरण हो गया था, श्री जिनेन्द्रदेव की पूजा के लिए मुख में एक कमल की पाँखुड़ी दबाकर उछलता और कूदता हुआ नगर के लोगों के साथ समवसरण की ओर चल देता है। मार्ग में महाराजा श्रेणिक के हाथी के पैर के तले आ जाने से वह मेढक कुचल जाता है और अपने पूजा करने के भाव सहित प्राणों को छोड़ देता है। यह मेढक पूजन के इस संकल्प तथा उद्यम के प्रभाव से मरकर सौधर्म स्वर्ग में महाऋद्धि का धारक देव हो जाता है। वहाँ वह देव अवधिज्ञान से सब पूर्ववृतान्त जानकर महावीर भगवान् के समवसरण में उपस्थित होता है और प्रसन्नचित्त होकर साक्षात् अरहंत भगवान् की पूजा करता है। इस प्रकार जब एक तिर्यंच देवपूजा के विचार मात्र से इतना फल पाता है, तब श्रावक शरीर से जल, चन्दन आदि के द्वारा और वचनों से स्तवन के द्वारा की गई पूजन के तो फल का कहना ही क्या है। जिनेन्द्र भगवान के पूजन का फल परम्परा से साक्षात् मोक्ष को देने वाला है। कहा जाता है कि
सिंह वानर, सर्पसूकर, नवल, अज सब तुमने तारे हैं।
उच्च और नीच नहीं देखा, शरण आये उबारे हैं। भगवान जिनेन्द्र अखिल जीवों के हितकारक हैं और उनकी पूजन भक्ति आदि के द्वारा संसारी जीव मात्र आत्मकल्याण करने के अधिकारी हैं, फिर शूद्र कैसे पृथक् रह सकते हैं। नीचता
और उच्चता तो कर्मकृत है और जिनेन्द्र का स्मरण कर्मों का दग्ध करने वाला है। अतः सब ही उनकी भक्ति पूजन आदि के अधिकारी हैं। यह बात उपर्युक्त कथन से स्पष्ट हो जाती है। दूसरे शब्दों में देवपूजा मुक्ति का कारण है। ऐसा कहा जाता है कि- 'पूयाफलेण तिलोके सुरपुज्जो
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