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________________ बालक का दृढ़ श्रद्धान एक लड़का किसी स्कूल में पढ़ने जाया करता था। वहाँ वह मन लगाकर एकाग्रचित्त हो अध्ययन किया करता था। जो कुछ भी स्कूल में उसके अध्यापक उसे पढ़ाते वह उसे कंठस्थ करने का प्रयत्न करता रहता था। एक दिन उसे पढ़ाया गया डी.ओ.जी. 'डोग', 'डोग अर्थात् कुत्ता। पुत्र जब घर पर होता तो अपना पाठ याद करता रहता था। माता-पिता पुत्र के मुख से डी.ओ.जी. डोग सुनकर प्रसन्न होते कि बेटा अंग्रेजी का अध्ययन कर रहा है। एक दिन वह लड़का अपने पिता जी के साथ खेल देखने बाहर कहीं जाता है। जब वह खेल देखने लगता है, तब उसे मुख से डी.ओ.जी. डोग की जगह जी.ओ.डी. गोड, गोड माने कुत्ता निकल जाता है। यह पिताजी सुन लेते हैं। खेल समाप्त होने के पश्चात् पिता-पुत्र घर पहुँचते हैं। पिताजी पुत्र से कहते हैं कि-"बेटा आज तुम खेल देखते समय क्या बोल रहे थे? जी.ओ.डी. गोड. माने तो भगवान होता है।' पत्र कहता है कि-पिताजी! मैंने तो भगवान देख ही नहीं कि ये कैसे होते हैं?' पिताजी कहते हैं-कि 'अच्छा चलो बेटा, तुम्हें मन्दिर जी ले चलते हैं, वहाँ तुम्हें दिखाते हैं कि भगवान् कैसे होते हैं,' पिता-पुत्र दोनों मन्दिर जी आते हैं। पुत्र भगवान् की मूर्ति के दर्शन करता है, कहता है-'यहाँ तो बहुत शान्ति है, पिताजी! इनके न तो कोई वस्त्र हैं और न कोई शस्त्र हैं, ये तो महान् सुखी हैं।' 'हाँ बेटा! ऐसे ही होते हैं वीतरागी भगवान!' पिताजी ने पुत्र का श्रद्धान दृढ़कर दिया। अब वह लड़का प्रतिदिन नियम से मन्दिर जाकर भगवान के दर्शन और पूजा आदि करने लगता है। यह क्रम चलता रहता है, और एक दिन यह लड़का वीतरागी मुद्रा के माध्यम से वीतरागी बन जाता है। अन्ततः एक दिन अपना कल्याण कर लेता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि, लड़का पहले भक्त बनता है और तदोपरान्त भक्ति-पूजा करता हुआ उन्हीं के समान भगवान् बन जाता है। इस प्रकार प्रत्येक श्रावक को दर्शन, भक्ति-पूजा का फल, यदि श्रद्धावान (सम्यग्दर्शन) हो, तो नियम से वह भगवान के समान बन जाता है, अर्थात् मोक्ष को प्राप्त होता है। जीवन में दर्शन-पूजा का अधिक महत्त्व होता है। जिसके जीवन में अरहंत भगवान के दर्शन-पूजन नहीं है, उसका जीवन व्यर्थ है। महावीराष्टक स्तोत्र में कहा गया है कि यदर्चा भावेन प्रमुदितमना दर्दुर इह, क्षणादासीत्स्वर्गी गुणगणसमृद्धः सुखनिधिः। लभंतेसद्भक्ताः शिवसुखसमाज किमुतदा, महावीरस्वामी नयनपथगामी भवतु मे (नः)। 356
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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