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________________ हवेइ सुद्धमणो" जो पुरुष शुद्ध हृदय होकर भगवान् की पूजन करता है, वह तीन लोक में देवादिक से पूजनीय तीर्थङ्कर होता है। यह पूजन का फल बतलाया गया है। तात्पर्य यह है कि जिनेन्द्रदेव के पूजन के फल से ही श्रावक स्वर्ग लोक में जाकर सागरों पर्यंत काल तक सुख भोगकर मनुष्य पर्याय धारण करके, मुनिपद धारण करके मोक्ष के अविनाशी परम सुख को प्राप्त कर सकता है। देवपूजन से श्रेष्ठ भाग्य का निर्माण होता है। श्रावक जब देवपूजन करता है तो अतिशय पुण्य का बन्ध होता है। उसके भाग्य के द्वार उसी क्षण से खुलने लगते हें पूजा के माहात्म्य का वर्णन करते हुए आचार्य धर्मसंग्रह में लिखते हैं कि मानिनो माननिर्मुक्ता मोहिनो मोहवर्जिताः । रोगिणो निरुजो जाता वैरिणो मित्रताश्रिताः ॥ चक्षुष्मन्तोऽभवन्नंधा बधिराः श्रुतिधारिणः । मूकाः पटुत्वमापन्नाः पंगवः शीघ्रगामिनः ।। निर्धनाः सधना लोके जड़ा पाण्डित्यमाश्रिताः । इत्यन्येऽपि च सम्पन्ना मानस्तंभादिदर्शनात् ॥ भगवान के समवसरण के मानस्तंभ के दर्शन करने मात्र से ही अभिमानियों के मान दूर गये और मोह में फँसे जीवों का मोह दूर हो गया, बैरी मित्र बन गये, अन्धों को दिखाई देने लगा, बधिर पुरुषों को शब्द सुनाई पड़ने लगे, गूँगे भी बोलने लगे और पंगु भी शीघ्रगामी हो गये अर्थात् पाँवों से चलने लगे, निर्धन धनवान हो गये और तो और मूर्ख भी पण्डित हो गये। ऐसा माहात्म्य है जिनेन्द्र भगवान के दर्शनों का तो पूजा करने का कहना ही क्या। इस प्रकार पुजारी का भाग्य ऐसा हो जाता है कि उसके असंभव कार्य भी संभव हो जाते हैं। पुजारी के भाग्य का एक दृष्टान्त यहाँ दृष्टव्य है सबका पुण्य अपना अपना एक सेठ के चार पुत्र थे, जिनमें एक कमाऊ, दूसरा जुआरी, तीसरा अन्धा और चौथा पुजारी था। कमाऊ बेटे की स्त्री सेठ से प्रायः झगड़ा करती, मेरा ही स्वामी सब कुछ कमाता है, बाकी सब बैठे-बैठे खाते हैं। कोई कुछ कमाई - धमाई नहीं करता, इसलिए हम तो अलग होकर रहेंगे। धीरे-धीरे यह बात सेठ का कमाऊ पुत्र भी बोलने लग जाता है। सेठ उन्हें समझाते हैं कि देखो बेटा सबका भाग्य उनके साथ होता है, कोई किसी का नहीं खाता और न ही कोई किसी को खिलाता है। सब अपने-अपने भाग्य का खाते हैं। तुम क्यों व्यर्थ इतना अहंकार करते हो कि हम 358
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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