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देवधर्म तपस्विनां कार्ये महति सत्यपि । जीवघातो न कर्तव्यः खभ्रपातक हेतुमान ।।
देव, धर्म, और गुरुओं के निमित्त भी महान् से महान् कार्य पड़ने पर भी जीव घात नहीं करना चाहिए। क्योंकि जीव घात नरक में ले जाने का कारण है। जो इसकी परवाह नहीं करते वे जिनेन्द्र भगवान् के वचन रूपी आँखों से रहित हैं।
आरती करना जैसा कार्य प्रायः हठी लोग करते हैं। जिनके पूर्वाग्रह रहता है, वे यह विचार ही नहीं कर पाते कि यह पुण्य कार्य है अथवा पाप कार्य है। इस प्रकार पक्ष पकड़कर कार्य करना अपना हित एवं अहित नहीं विचारना, पाप का कारण है एवं कुगति में ले जाने वाला है। दीपक से आरती करने में प्रत्यक्ष उड़ने वाले चार इन्द्रिय जीव आकर गिर ही जाते हैं। इस प्रकार प्रत्यक्ष हिंसा जैन धर्मानुयायी किस प्रकार से कर सकेगा? क्योंकि जहाँ हिंसा है वहाँ धर्म नहीं हो सकता, ऐसा जैनधर्म का मुख्य उद्देश्य है।
अखण्ड ज्योति जलाना भी धर्म विरूद्ध- अब से लगभग चार सौ वर्ष पहले जब भारत में मुसलमान शासकों का राज्य था और बलात् मूर्तियाँ खंडित की जा रही थीं, ऐसे संकटकाल में जिनमूर्तियों को गर्भगृह अथवा तलघरों में स्थापित कर दिया गया था वहीं जैनी लोग दर्शन करने जाते थे, वहाँ तब प्रकाश हेतु दीपक जलाये जाते थे। चूँकि उस समय आज की तरह बिजली प्रकाश नहीं था एवं मंदिरों में खिड़कियाँ एवं रोशनदान नहीं बनाये जाते थे, जिस कारण प्रकाश अपर्याप्त रहता था। तब एक हाथ में दीपक लेकर उसके द्वारा भगवान की प्रतिमा के दर्शन करते थे और उनका गुणानुवाद करते थे, इसलिए बाद में इस क्रिया को आरती से जोड़ दिया गया। जबकि उस समय की परिस्थितियों में उनकी विवशता थी लेकिन उनके अभिप्राय में दोष नहीं था, हठ नहीं था, लेकिन आज उस क्रिया को धर्म की क्रिया बताना महान् अज्ञान है। इसलिए अखंड ज्योति जलाना भी जैन आम्नाय की परिचायक नहीं है। इससे महान् हिंसा होती है। धर्मस्थान धार्मिक क्रियाओं में कदापि हिंसा नहीं करनी चाहिए। शास्त्रों में कहा गया है कि
अन्यस्थाने कृतं पापं धर्मस्थाने विनश्यति । धर्मस्थाने कृतं पापं वज्रलेपो भविष्यति ।।
अन्य स्थानों में किया गया पाप मन्दिर आदि धार्मिक स्थानों पर कट जाता है, किन्तु धर्मस्थान में किया गया पाप वज्र लेप हो जाता है। अतः गृहस्थों को सावधानी पूर्वक मन्दिर बनवाना, पूजन आदि करना चाहिए। आरती, अखण्ड ज्योति आदि हिंसक कार्य नहीं करना चाहिए। आरती का सम्बन्ध दीपक से कदापि नहीं है। पं. प्रवर संतलाल जी ने सिद्धचक्र विधान में कई जगह भगवान की महिमा का वर्णन करने को आरती नाम दिया है।
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