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________________ एक ओर तो मुनिराजों को भी मर्यादित भोजन का आहार दिया जाता है, वहीं दूसरी ओर भगवान् के समक्ष अमर्यादित लड्डू चढ़ाते हैं। निर्वाण लड्डू चढ़ाना आगम के विरूद्ध है। यह एक भट्टारकी प्रथा है जो कि अविवेकपूर्ण होने से कभी भी मान्य नहीं मानी जा सकती है। इसलिए इस रूढ़िवादी परम्परा के स्थान पर निर्वाण दिवस पर बादाम, गोला, अथवा सूखे फल चढ़ाये जाना चाहिए। इससे हम हिंसा से बच जाते हैं और भगवान् का निर्वाण उत्सव भी मना सकते हैं। हिंसा क्रिया में धर्म मानना मिथ्यात्व है, जिसका फल घोर संसार भ्रमण के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। 6. दीप- गोले की चटक को केसर से या चन्दन से रंगकर दीप की कल्पना करना चाहिए। इससे पूजन करना शास्त्रानुकूल है। इससे भाव निर्मल होते हैं। यदि आप साक्षात् दीपक जलाते हैं तो वह स्थावर जीव होने से सचित्त है। दीपक की ज्योति जो अग्नि जीव है, ऊपर जाकर के भी अनेक जीवों को हनन करती है। इसमें हिंसा होती है और पूजन में हिंसा करना उचित नहीं है। अतः हिंसा से बचने के लिए गोले की चटक आदि को चन्दन से रंगकर दीप की कल्पना करनी चाहिए। दीपक से आरती करना धर्म विरुद्ध- आरती करना जैनसिद्धान्त के अनुकूल नहीं है। आरती का समय सामायिक का समय है। आरती के लिए रात्रि में दीपक जलाना पड़ता है, जो किसी भी तरह उचित नहीं कहा जा सकता। जब पूजन में भी दीप जलाना हिंसा मानी गयी तब रात्रि को दीपक जलाना कैसे उचित हो सकता है? सामायिक के समय को टालकर उसको आरती के कार्य में लगाना शास्त्र से कभी भी सिद्ध नहीं होता । आरती के सन्दर्भ में शास्त्रों में कहा गया कि दीपप्रकाशे प्रपतन्ति जीवाः, अरार्तिकं दीपमृते न भावि । तज्जीवघातान्नरकप्रसूतिररार्तिकं नैव ततो विधेयम् ॥ दीपप्रकाशव्यसना हि शलभाः, दीपे पतन्तो विरमन्ति नैव । तज्जीवघातान्नरके प्रयान्ति, अरार्तिकं नैव दयालुध्येयम् ॥ नियम से दीपशिखा पर मच्छर और पतंगे आदि चतुरिन्द्रिय जीवों का घात होता है। मच्छर आदि प्रकाश के व्यसनी जीव हैं वे आने से कभी नहीं रुकते और जीव घात से प्राणी नियम से नरक को जाते हैं। आरती बिना दीप के नहीं बन सकती। अतः आरती करना कभी विज्ञ तथा दयालु पुरुषों का ध्येय नहीं हो सकता। यदि यह कहा जाए कि आरती में जो जीव घात होता है वह धर्म के लिए होता है इसलिए ऐसे जीवघात से बचने की आवश्यकता नहीं है, यह ठीक नहीं है, क्योंकि शास्त्र में लिखा है कि 348
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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