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________________ प ___ हे भगवन्। आपको पूजते हुए जो पूजाकृत सावध आरम्भ होता है, वह लेश थोड़ा होता है, और पुण्य की राशि बहुत विपुल प्राप्त होती है। जिस प्रकार शीतल जल से भरे हुए समद्र में एक विष की बँद का कछ असर नहीं होता, उसी प्रकार आपके पूजन द्वारा प्राप्त किये हुए पुण्य समूह में पूजन कृत आरम्भ जनित दोष का कुछ असर नहीं होता। पंचामृत अभिषेक का निषेध-वि.सं. 753 में काष्ठासंघ की उत्पत्ति हुई इस संघ में काष्ठ की प्रतिमा का अभिषेक जल से ही होता था। अनन्तर जल से अभिषेक होने के कारण वह काष्ठ की प्रतिमा फटने लगी तब काष्ठा संघ के संस्थापक गुणभद्र और कुमारसेन नामक मुनियों ने दुग्ध, दही, घृत, इक्षुरस और चन्दन से प्रतिमा का अभिषेक करने को कहा। यह कार्य मात्र मूर्ति को फटने से रोकने का उपचार था। बाद में जल से अभिषेक करने की आज्ञा दी तथा साथ में यह भी कहा कि जब तक धातु अथवा पाषाण की दूसरी प्रतिमा तैयार न हो जाये, तब तक ही यह पंचामृताभिषेक करना। जब दूसरी प्रतिमा तैयार हो जाये तब इन सब प्रपंचों को छोड़कर भगवान् का अभिषेक केवल शुद्ध जल से ही करना। आज यह पंचामृताभिषेक अनेक जगह रूढ़ि में आ चुका है। यह सर्वविदित है कि काष्ठासंघ आम्नाय आर्षमार्ग नहीं है ये लोग भट्टारक थे। विचारणीय है कि अहिंसाव्रत एवं अहिंसा के पूर्ण रूप से पोषक जैनधर्म में पाँच अभिषेक के पदार्थों का विधान कहाँ तक संगत होगा, जिसमें प्रत्यक्ष परिग्रहण की झलक के साथ हिंसा, न केवल स्थावर की, बल्कि उसके सहयोग से इक्षुरस आदि मिष्ठान के कारण चींटियों आदि जीवों की भी हिंसा होती है। दध, दही, घी आदि पदार्थ कभी-कभी शद्ध न मिलने पर अमर्यादित, बाजारू एवं अस्पृश्य तक भी काम में लाये जाते हैं। यदि वीतराग धर्म में भी अभिषेक पंचामृत से मान लिया तो सर्वथा अहिंसा तथा निवृत्तिमार्ग का लोप हो जायेगा। अत: पंचामृताभिषेक, वीतरागता, अहिंसा एवं अपरिग्रहत्व का विरोधी धर्म है। विचारशीलों को यह अभिषेक नहीं करना चाहिए। इस प्रकार कृत्रिम और अकृत्रिम प्रतिमाओं के अभिषेक का विधान जल से ही अनेक स्थानों पर पाया जाता है और भगवान जिनसेनाचार्य एवं गुणभद्राचार्य आदि मूलसंघ के दिगम्बर आचार्यों ने कहीं पर भी पंचामृताभिषेक का नाम तक नहीं लिया। स्त्री द्वारा अभिषेक का निषेध-स्त्रियों द्वारा जिनेन्द्र भगवान का अभिषेक नहीं होना चाहिए। इसके बहुत पुष्ट प्रमाण शास्त्रों में प्राप्त होते हैं। जैसे-जन्म कल्याणक के समय इन्द्र ने भी जब भगवान् का अभिषेक किया था, उस समय भी इन्द्राणी को साथ में नहीं लिया था फिर स्त्री को प्रक्षाल करने की शास्त्र आज्ञा देता है, यह कैसे कहा जा सकता है? शास्त्रकारों ने कहा है कि आचार्यों को, उपाध्यायों को और मुनिराजों को आर्यिकाएँ और स्त्रियाँ क्रमशः 5 हाथ, 6 हाथ, और 7 हाथ दूर से ही नमस्कार करती हैं, तब महामुनिराज अहंत परमात्मा को स्त्री कैसे स्पर्श कर सकती है? स्त्री द्वारा अभिषेक से उनके ब्रह्मचर्य एवं शील में दोष लगने का - 3454
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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