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____34 अतिशय, 8 प्रातिहार्य, और 4 अनंतचतुष्टय-ये 46 गुण अरहंतों के हैं। 34 अतिशयों में 10 अतिशय जन्म के होते हैं, 10 केवलज्ञान के होते हैं और 14 देवकृत होते हैं।
इस प्रकार अरहंत भगवान उपर्युक्त 46 गुणों सहित और 18 दोषों रहित होते हैं। उनकी पूजा दो प्रकार की होती है
प्रत्यक्ष पूजन-समवशरण में गंधकुटी के मध्य अष्टप्रातिहार्य सहित, अतिशय से विराजमान तीर्थकर भगवान की प्रत्यक्ष पजन होती है। भगवान तीर्थङ्कर अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य रूप अनन्त चतुष्टय सहित जीवन मुक्त अवस्था में विराजमान हैं। इसी प्रकार विदेह क्षेत्र में सीमन्धर स्वामी आदि 20 तीर्थर विद्यमान रहते हैं। उनकी जो पूजा की जाती है, वह भी प्रत्यक्ष पूजा कहलाती है।
परोक्ष पूजन-उन तीर्थङ्कर अरहंतों की प्रतिमा की जो पूजा अरहंत की स्थापनापूर्वक पूजा की जाती है, वह परोक्ष पूजन कहलाती है। ये प्रतिमाएँ साक्षात् अरहंत भगवान् के समान हैं, केवल इनमें और अरहंत भगवान में चेतन और अचेतन का ही अन्तर है।
अभिषेक पूजा का अंग नहीं-पूजा करने से पूर्व अभिषेक करना आवश्यक नहीं होता। यह क्रिया श्रावकों को करनी अवश्य चाहिए, किन्तु यह पूजा का अंग नहीं माना जा सकता। अरहंत भगवान की प्रतिमा अरहंत भगवान के समान ही होती है और अरहंत भगवान का साक्षात् समवशरण में जब पूजन होता है तो वहाँ अभिषेक क्रिया नहीं होती। अभिषेक क्रिया का प्रयोजन तो केवल प्रतिमा का रख-रखाव और स्वच्छता होता है, जो कि अति आवश्यक है। अभिषेक से तात्पर्य यहाँ प्रक्षाल से लिया जाता है, किन्तु आज अधिकांश श्रावक प्रक्षाल (गीले वस्त्र से पौछना) करना तो भूलते जा रहे और अभिषेक क्रिया को अनिवार्य मानने लगे हैं। अभिषेक में जल अधिक लगने से दोष है और जब जल बहता हुआ लिंग के पास के स्थान में जमा हो जाता है तो वहाँ ठीक से जल शुष्क न होने से जीव उत्पन्न हो जाने से हिंसा होने का पाप लगता है। ये क्रियाएँ सम्यग्दृष्टि नहीं करता है।
एक बार प्रासुक जलाभिषेक होना उचित है जल को दुहरे वस्त्र में छानकर गर्मकर प्रासुक जल से भगवान का प्रक्षाल प्रतिदिन केवल एक बार करना चाहिए। बार-बार प्रक्षाल या अभिषेक नहीं करना चाहिए। पूजा करने से विपुल मात्रा में पुण्य प्राप्त होता है जबकि जलादि का उपयोग पाप का भी कारण बनता है। आचार्य समंतभद्र कहते हैं
पूज्यं जिनं त्वार्चयतो जनस्य सावद्यलेशो बहुपुण्यराशौ। दोषाय नालं कणिका विषस्य न दूषिका शीतशिवाम्बुराशौ॥
-स्वयंभूस्तोत्र, 58 344