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पर्वतों की चोटियों, कुंजगृहों आदि में विहार करते हैं। ये आठ प्रकार के होते हैं और
कोतुहलवश नाना प्रकार की क्रियाएँ करते हैं। 3. ज्योतिषदेव:- सूर्य, चन्द्र आदि ऊपर आकाश में सुमेरू पर्वत के चारों ओर घूमने
वाले ज्योतिष देव कहलाते हैं। ये पाँच प्रकार के होते हैं। अढाई द्वीप के अन्दर जितने भी ज्योतिष देव हैं, वे सब घूमने वाले हैं, जिससे दिन-रात का निर्धारण होता है, किन्तु
अढ़ाई द्वीप से बाहर के सब ज्योतिष देव स्थिर हैं, वे चक्कर नहीं लगाते हैं। 4. वैमानिक देव:- ऊपर उर्ध्वलोक के विमानों में जन्म लेने वाले देव वैमानिक देव
कहलाते हैं। सोलह स्वर्गों तक के देव कल्पदेव कहलाते हैं। उससे उपर के देव अर्थात् नवग्रैवेयक, नवअनुदिश और पाँच अनुत्तर विमानों के देव कल्पातीत या अहमिंद्र
कहलाते हैं। ये विमान ऊपर-ऊपर स्थिर हैं। उपर्युक्त चारों प्रकार के देवों को किसी भी प्रकार कल्याणकारी मानकर या अन्य किसी लौकिक दृष्टि से लाभ देने वाले मानकर मानना और पूजना निषेध है, क्योंकि ये किसी का भला-बुरा करने में समर्थ नहीं हैं। यदि ये समर्थ हों तो ये कर्ता ठहरेंगे, किन्तु इनके करने से कुछ होता दिखाई नहीं देता। ये प्रसन्न होकर धन आदि दे नहीं सकते और द्वेषी होकर कुछ बुरा नहीं कर सकते। इनको मानना-पूजना आचार्यों ने देव मूढ़ता बताई है। आचार्य समन्तभद्र स्वामी देवमूढ़ता का लक्षण बताते हुए कहते हैं कि
वरोपलिप्सयाशावान् रागद्वेषमलीमसाः। देवता यदुपासीत देवतामूढ़मुच्यते॥
- रलक० श्रा०, 23 पुत्रप्राप्ति, रोगनिवृत्ति और धनलाभ आदि इस लोक सम्बन्धी वर अर्थात् फल की आशा से रागी-द्वेषी देवताओं की पूजन, उपासना करना देवमूढ़ता कहलाती है। यह देवमूढ़ता सम्यग्दृष्टि के नहीं होती। मिथ्यादृष्टि को ही मूढ़ताएँ होती हैं।
पूजा कैसे करें- सुदेव का जो लक्षण कहा गया है, उसके स्वामी अर्हन्त देव हैं, उन्हीं की भक्ति-स्तुति और पूजन करना योग्य है। क्योंकि उनकी भक्ति भव्य प्राणियों को संसार समुद्र से पार उतारने के लिए जहाज के समान होती है। अरहंतों के छियालीस गुण
चवतीसों अतिशय सहित, प्रातिहार्य पुनि आठ। अनंतचतुष्टय गुण सहित, छीयालीसों पाठ॥
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