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________________ 2. कुदेव - जो राग-द्वेष सहित हैं, जो पक्षपात करते हैं उन्हें कुदेव कहते हैं। पं. दौलतराम जी कहते हैं कि जो रागद्वेष मलकरि मलीन, वनिता गदादिजुत चिन्हचीन्ह । ते हैं कुदेव तिनकी जु सेव; शठकरत न तिन भव भ्रमणछेव ॥ जो देव अपने भक्तों पर तो प्रसन्न होते हैं और जो इनकी भक्ति न करे उस पर रुष्ट हो जायें। इस प्रकार जो पक्षपात करे, जिसका राग-द्वेष से मन मैला है, जो स्त्रियाँ आदि रखते हैं, जो शस्त्र, गदा आदि रखते हैं, जिनके ऐसे लक्षण दिखाई देते हैं वे सब कुदेव होते हैं। ये आत्महित के कर्ता नहीं हैं, इन्हें भ्रम से हित का कर्ता जानकर जो सेवन करते है वह मिथ्यात्व का सेवन करता है इनको मानने वाले, इनकी पूजा करने वालों के तीन प्रयोजन होते हैं। कोई तो इन्हें मोक्ष का प्रयोजन रखकर पूजते हैं, कोई इन्हें परलोक सुधर जाये, ऐसा प्रयोजन रखकर पूजते हैं, कोई इन्हें वर्तमान भव सुधर जाये, सुखी हो जायें, ऐसा मानकर पूजते है। जो स्वयं तो पाप बाँधता है और कहता है ईश्वर हमरा भला करेगा। यह सब मिथ्यात्व का सेवन करना है। जिसका फल संसार भ्रमण ही है। 3. अदेव - कल्पना करके किसी भी वस्तु-पुद्गलादि को देव की तरह मानना - पूजना, जिसकी सत्ता ही नहीं है, उन्हें अदेव कहते हैं। जैसे संध्याकाल लाइट खोलते ही हाथ जोड़ना, मन्दिर आदि में प्रवेश करते समय देहली, पैड़ियों आदि को माथे से लगाना, अग्नि, जल आदि का पूजना, गाय, घोड़ा आदि तिर्यंचों को पूजना पेड़-पौधों को पूजना, जैसे- पीपल का वृक्ष, तुलसी का पौधा आदि, शस्त्रादिक को पूजना और यहाँ तक की ईट-पत्थर तक को पूजना ये सब अदेव माने जाते हैं। इनकी कहीं सत्ता है ही नहीं। इनके पूजने का प्रयोजन जो शत्रुनाश, धनप्राप्ति, पुत्रप्राप्ति आदि हैं सो कैसे पूरे होंगे अर्थात् नहीं हो सकते क्योंकि वे सब मिथ्याबुद्धि का परिणाम होने से संसार के भ्रमण के कारण हैं। 4. देव - जो जीव देवगति में चला जाता है, उसे देव कहते हैं। ये चार प्रकार के होते हैं, आचार्य उमास्वामी कहते हैं- 'देवाश्चतुर्णिकाया:' ( तत्त्वार्थसूत्र. अ. 4.1) देव चार प्रकार के हैं- 1. भवनवासीदेव ; 2. व्यंतर देव; 3. ज्योतिषिदेव; और 4. वैमानिक देव । 1. भवनवासीदेवः - ये देव पृथ्वी के ख़र और पंक भाग में स्थित भवनों में अपने परिवार सहित रहते हैं। ये दस प्रकार के होते हैं। 2. व्यंतर देवः - ये देव पृथ्वी के ख़र भाग में और मध्य लोक में सर्वत्र नाना द्वीपों, वनों, 342
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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