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________________ क्षुत्पिपासाजरातंकजन्मान्तकभयस्मयाः। न रागद्वेषमोहाश्च यस्याप्त: स प्रकीर्त्यते॥ (रलकरण्डश्रावकाचार, 3) जो (1) भूख, (2) प्यास, (3) बुढ़ापा, (4) व्याधि, (5) जन्म, (6) मृत्यु, (7) भय, (8) मद, (9) राग, (10) द्वेष (11) मोह, (12) चिंता, (13) रति, (14) निद्रा, (15) आश्चर्य. (16) शोक (17) पसीना, (18) खेद-इन अठारह दोषों से रहित हो वह निर्दोष सर्वगुण सम्पन्न वीतराग होता है। यह आप्त का पहला गुण है। दूसरे गुण को स्पष्ट करते हुए आचार्य कहते हैं - परमेष्ठी परंज्योतिः विरागो विमलः कृती। सर्वज्ञोऽनादिमध्यान्तः सार्वः शास्तो पलाल्यते॥ (रलकरण्डप्रावकाचार, 7) जो परमेष्ठी, परंज्येति, विराग, विमल, कृतकृत्य आदि, मध्य और अन्त से रहित, तीर्थङ्ककर, जिन और सर्वज्ञ हैं, सभी प्राणियों का हित करने वाले होने से 'सार्व' हैं, वे ही सच्चे उपदेष्टा हैं। इसलिए उनके शासन को मुनिगण 'सार्वभौम' कहते हैं। दूसरे शब्दों में इन्द्रादिक से पूज्य परमपद में स्थित अक्षय केवलज्ञान सहित, रागद्वेष आदि भावकर्म रहित घातियाकर्म रूप द्रव्यकर्म रहित, कृतकृत्य, सत्यार्थदेव के प्रवाह की अपेक्षा आदि, मध्य, अन्त रहित, सर्व पदार्थों के ज्ञाता-दृष्टा और सब जीवों का हित करने वाले हितोपदेशी होते हैं। आचार्य कहते हैं कि आप्त के उपदेश में राग नहीं होता, द्वेष का भी अभाव होता है। यथा अनात्मार्थं विना रागैः शास्ता शास्ति सतो हितम्। ध्वनन् शिल्पिकरस्पर्शान्मुरजः किमपेक्षते॥ (रत्नकरण्डश्रावकाचार, 8) जो धर्मोपदेशरूप शिक्षा देने वाले अरहन्त आप्त हैं, वे अनात्मार्थं अर्थात् अपनी ख्याति, लाभ, पूजादि प्रयोजन के बिना ही तथा शिष्यों में रागभाव के बिना ही सत्पुरुष जो निकट भव्य हैं, उन्हें हितरूप शिक्षा देते हैं; जिस प्रकार वाद्य बजाने वाले शिल्पि के हाथ का स्पर्श मात्र पाकर मृदंग अनेक प्रकार से ध्वनि करने लगता है किन्तु बदले में वह मृदंग कुछ भी नहीं चाहता। ऐसे देवाधिदेव अरहंत होते हैं, जिन्हें सुदेव कहते हैं। षट् आवश्यकों के प्रथम आवश्यक में इन्हीं देव की पूजा करना आचार्यों ने बतलाया है। अन्य किसी देव की पूजा करना मिथ्यात्व सेवन करना है, जिसका फल घोर दुःख रूप संसार भ्रमण है। - - 341
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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