SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 363
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम आवश्यक देवपूजा जैनधर्म: वचनपटुता कौशलं सत्क्रियासु, विद्वद्गोष्ठी प्रकटविभवः संगतिः साधुलोके । साध्वी लक्ष्मी चरणकमलोपासना सद्गुरुणां, शुद्धं शीलं मतिविमलता प्राप्यते भाग्यवृद्धिम् ॥ जिन्होंने पूर्वभव में बहुत पुण्य किया है, ऐसे भाग्यवान् पुरुषों को ही जैनधर्म, विशेष ऐश्वर्य की प्राप्ति, सज्जनों की संगति, विद्वानों के साथ तत्त्वचर्चा करना, सदाचार पालन में चतुराई, शुद्धशील और ज्ञान की निर्मलता, आदि ये इष्ट साधन प्राप्त होते हैं। इसलिए प्रत्येक प्राणी को धार्मिक कर्तव्यों में दृढ़ रहना चाहिए। चूँकि मानव जीवन बड़ी कठिनाई से प्राप्त हुआ है। इसकी सार्थकता प्रथम आवश्यक 'देवपूजा' करने में होती है। कृषि आदि छळ कर्मों के द्वारा आजीविका करने वाले गृहस्थ को जो पाप होता है तथा चूल्हा-चक्की आदि क्रियाओं को करने में जो हिंसा होती है, उसके निवारणार्थ यह देवपूजा करना परम आवश्यक हो जाता है। (1) देव कैसे हो (2) पूजा कैसे करें और (3) पूजा का फल क्या है, देवपूजा के अन्तर्गत इन विषयों को जानना, पहचानना होगा तभी देवपूजा करनी सार्थक होगी। इसके साथ ही यह भी जानना होगा कि देवपूजा कितने प्रकार की होती है। देव कैसे हों - देव कई प्रकार के होते हैं, जैसे- सर्वज्ञ देव जिन्हें सुदेव कहते हैं, कुदेव जो रागी -द्वेषी होते हैं, अदेव - जिनकी संज्ञा ही नहीं होती, भ्रमवश कल्पना से मानने लगते हैं और देव जैसे भवनवासी आदि देव | इस प्रकार इनको जानकर, पहचान कर हित-अहित का विचार करते हुए निर्णय कर देवपूजा करनी चाहिए। इन 4 प्रकार के देवों का वर्णन अधोलिखित है1. सुदेव - जो वीतरागी, सर्वज्ञ और हितोपदेशी होता है, वह सुदेव या सच्चा देव कहलाता है। सुदेव का लक्षण बताते हुए आचार्य समन्तभद्र कहते हैं कि आप्ते नोच्छिन्नदोषेण सर्वज्ञेनागमे शिना । भवितव्यं नियोगेन नान्यथा ह्याप्तता भवेत ॥ (रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 5) जो सर्व दोष रहित होने से वीतरागी हैं, सर्व के ज्ञाता होने से सर्वज्ञ हैं और हित के उपदेशक होने से हितोपदेशी हैं। इस प्रकार जो तीनों गुणों से युक्त हैं, वे आप्त कहलाते हैं दूसरे शब्दों में आप्त ही सुदेव हैं। आगे आचार्य वीतराग का लक्षण बताते हुए कहते हैं कि 340
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy